अध्याय
4
मगरमच्छ
उस शहर में,
जहाँ डॉक्टर रहता था, एक सर्कस थी, और सर्कस में था एक बड़ा-सारा मगरमच्छ. वहाँ
लोगों को पैसे लेकर मगरमच्छ दिखाया जाता था.
मगरमच्छ के
दांतों में दर्द था, और वह डॉक्टर आयबलित के पास इलाज करवाने आया था.
डॉक्टर ने उसे
आश्चर्यजनक दवा दी, और दांतों का दर्द ख़त्म हो गया.
“आपके यहाँ कितना अच्छा है!” मगरमच्छ ने अगल-बगल
देखते हुए, अपनी जीभ चाटते हुए कहा – “कितने सारे ख़रगोश हैं, पंछी हैं, चूहे हैं
आपके पास! और वे सब कितने मोटे-ताज़े हैं, स्वादिष्ट हैं. मुझे हमेशा के लिए आपके
पास रहने दीजिए. मैं सर्कस के मालिक के पास वापस नहीं जाना चाहता. वो मुझे भूखा
रखता है, मारता है, मेरा अपमान करता है.”
“रह जा,” डॉक्टर ने कहा. “प्लीज़! मगर देख: अगर
तूने एक भी ख़रगोश को, या एक भी चिड़िया को को खाया, तो मैं तुझे फ़ौरन भगा दूँगा!”
“ठीक है,” मगरमच्छ ने कहा और गहरी साँस ली, “वादा
करता हूँ, डॉक्टर कि न तो ख़रगोश खाऊँगा, न गिलहरी, न ही पंछी.”
और मगरमच्छ
डॉक्टर के पास रहने लगा.
वह ख़ामोश
स्वभाव का था. किसी को भी छूता नहीं था, पलंग के नीचे पड़ा रहता और अपने भाईयों और
बहनों के बारे में सोचता रहता, जो बहुत-बहुत दूर रहते थे, उष्ण अफ्रीका में.
डॉक्टर मगरमच्छ
से प्यार करने लगा और वह अक्सर उससे बातें करता. मगर दुष्ट वरवारा तो मगरमच्छ को
ज़रा भी बर्दाश्त नहीं कर पाती थी और चिल्ला-चिल्लाकर मांग करती थी कि डॉक्टर उसे
भगा दे.
“मैं उसकी सूरत भी नहीं देखना चाहती,” वो
चिल्लाई. “कितना घिनौना है वो, नुकीले दांतों वाला.
और जो भी छूता
है, हर चीज़ ख़राब कर देता है. कल मेरी हरी स्कर्ट खा गया, जो मेरी खिड़की में पड़ी
थी.”
“अच्छा किया,” डॉक्टर ने कहा, “कपड़ों को हमेशा
अलमारी में बन्द करके रखना चाहिए, न कि खिड़की में फेंकना चाहिए.”
“इस घिनौने मगरमच्छ के कारण लोग तुम्हारे घर में
आने से डरते हैं,” वरवारा कहती रही. “सिर्फ ग़रीब लोग ही आते हैं, और तुम उनसे कोई
पैसे नहीं लेते, और अब हम ग़रीब हो गए हैं, ब्रेड ख़रीदने के लिए भी पैसे नहीं हैं.”
“नहीं चाहिए मुझे पैसे,” आयबलित ने जवाब दिया. “बिना
पैसों के भी मैं ख़ुश हूँ.
जानवर तुम्हारा
भी और मेरा भी पेट भरते हैं.”
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