जब डैडी छोटे थे
लेखक
अलेक्सान्द्र रास्किन
हिन्दी
अनुवाद
आ.
चारुमति रामदास
मेरी
बेटी के नाम,
अलेक्सान्द्र
रास्किन.
लेखक
का मनोगत
प्यारे बच्चों!
मैं आपको यह बताना चाहता
हूँ कि इस किताब का जन्म कैसे हुआ. ये है उसका इतिहास.
मेरी एक बेटी
है – साश्का. अब तो वह बड़ी हो गई है. अब वह अक्सर कहती है: “जब मैं छोटी थी...”
तो, जब साशा बिल्कुल ही छोटी थी, तो वह अक्सर बीमार रहा करती थी. कभी उसे फ्लू हो
जाता, तो कभी उसके टॉन्सिल्स बढ़ जाते. फिर उसके कानों में दर्द होने लगा. अगर कभी
आपके कान के बीच वाले हिस्से में सूजन आई हो, तो आपको ये समझाने की ज़रूरत नहीं है
कि कित्ता दर्द होता है. और अगर ऐसा न हुआ हो तो, फिर भी समझाने की ज़रूरत नहीं है –
आप इसे कभी समझ नहीं पाएँगे.
एक बार साशा के
कान में इत्ता दर्द हुआ कि वह चौबीसों घण्टे रोती रहती और सो भी नहीं पाती थी. मुझे उस
पर इतनी दया आती थी, कि मैं भी बस रोने-रोने को हो जाता था. मैं उसे कई तरह की किताबें
पढ़कर सुनाता या मज़ेदार किस्से सुनाता.
एक बार मैंने उसे बताया कि छुटपन में मैं
कैसा था, और कैसे मैंने अपनी नई गेंद कार के नीचे फेंक दी थी. साशा को ये किस्सा
बहुत पसन्द आया. उसे ये सुनकर बहुत अच्छा लगा कि डैडी भी कभी छोटे थे, वो भी शरारत
करते थे, बड़ों का कहना नहीं मानते थे और उन्हें भी सज़ा मिलती थी.
उसे ये सब याद रह
गया. और अब, जैसे ही उसके कान में टीस उठने लगती, वह फ़ौरन चिल्लाती: “डैडी, डैडी,
मेरा कान दर्द कर रहा है! जल्दी से मुझे सुनाओ कि बचपन में तुम कैसे थे!”
और, मैं उसे वह
सब कुछ बताता, जो अब आप पढ़ने वाले हैं. मैंने मज़ाहिया किस्से चुने : बीमार बच्ची
को ख़ुश जो करना था. मैंने यह भी कोशिश की कि मेरी बेटी इस बात को समझ जाए कि
लालची, शेख़ीबाज़, घमण्डी होना बुरी बात है. मगर, इसका मतलब ये नहीं है कि मैं ख़ुद
ज़िन्दगी भर ऐसा था. मैंने, बस, ऐसी ही घटनाओं को याद करने की कोशिश की. जब मुझे
ऐसी घटनाएँ न मिलतीं, तो मैं उन्हें दूसरे, परिचित डैडियों से लेता. क्योंकि उनमें
से हरेक कभी न कभी तो छोटा था ही सही. तो, ये सारे किस्से मेरी कल्पना का खेल नहीं
हैं, बल्कि वे वाक़ई में हुए थे.
अब साशा बड़ी हो
गई है. वह अपने आप ही बड़ी-बड़ी, मोटी-मोटी किताबें पढ़ लेती है.
मगर मैंने सोचा
कि शायद दूसरे बच्चों को भी यह जानने में दिलचस्पी हो कि छुटपन में एक डैडी कैसे
थे.
बस, बच्चों,
मैं आपसे इतना ही कहना चाहता था. नहीं, एक और बात भी मैं आपसे कहूँगा – चुपके से.
इस किताब का अगला भाग भी निकलने वाला है. वो हर बच्चे का अपना किस्सा होगा.
क्योंकि हरेक डैडी बता सकते हैं कि बचपन
में वो कैसे थे. और मम्मा भी बता सकती है. मैं ख़ुद भी उनकी बातें सुनना चाहूँगा.
तो, बस, फ़िलहाल
इतना ही. फिर मिलेंगे, बच्चों! आपके सुखी और स्वस्थ्य जीवन की कामना करता हूँ.
आपका सम्मान करने
वाला,
अ. रास्किन.
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