शनिवार, 11 अप्रैल 2015

Jab Daddy Chhote the - 03

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जब डैडी कविताएँ लिखते थे


जब डैडी छोटे थे, तो उन्हें पढ़ने का बहुत शौक था. उन्होंने चार साल की उम्र में पढ़ना सीख लिया था, और पढ़ने के अलावा वो कुछ और करना ही नहीं चाहते थे. जहाँ दूसरे बच्चे उछलते-कूदते, भागते, कई तरह के दिलचस्प खेल खेलते, छोटे डैडी बस पढ़ते रहते, पढ़ते रहते. आख़िर में दादा और दादी को चिंता होने लगी. उन्होंने फ़ैसला किया कि हर वक़्त पढ़ते रहना नुक्सानदायक है, इसलिए उन्होंने उनके लिए किताबें लाना बन्द कर दिया और दिन में सिर्फ तीन घण्टे ही पढ़ने की इजाज़त दी. मगर इससे कुछ फ़ायदा नहीं हुआ. छोटे डैडी सुबह से शाम तक पढ़ते ही रहते. इजाज़त के अपने तीन घण्टे तो वह सबके सामने बैठकर पढ़ते. फिर वो छुप जाते. वो पलंग के नीचे छुप जाते और वहीं पढ़ते रहते. वो ऍटिक में छुपकर बैठ जाते और वहीं पढ़ते रहते. वो घास वाले कमरे में छुप जाते और वहीं पढ़ते रहते. यहाँ उन्हें बड़ा अच्छा लगता. ताज़ी-ताज़ी घास की ख़ुशबू आती रहती. घर से चीख़-पुकार की आवाज़ें आतीं: वहाँ डैडी को सारे पलंगों के नीचे ढूँढ़ रहे होते. डैडी खाने के समय पर ही प्रकट होते. उन्हें सज़ा दी जाती. वो जल्दी-जल्दी खाना खाकर सोने चले जाते. रात में वह उठ जाते और लाईट जला लेते. सुबह तक एक के बाद एक किताबें पढ़ते रहते. चुकोव्स्की की ‘क्रोकोडाईल’ पढ़ते. पूश्किन की परी-कथाएँ पढ़ते. “एक हज़ार एक रातें”. “गलिवर की यात्राएँ”, “रॉबिन्सन क्रूसो”. दुनिया में इत्ती सारी वन्डरफुल किताबें थीं! वो सारी किताबें पढ़ना चाहते थे. घड़ी तेज़ी से भागती. दादी भीतर आती, उनके हाथ से किताब छीनती और लाईट बुझा देती. कुछ देर के बाद छोटे डैडी फिर से लाईट जला लेते और उतनी ही दिलचस्प दूसरी किताब ले लेते. दादा जी भीतर आते, किताब छीन लेते, लाईट बुझा देते और छोटे डैडी को अंधेरे में खूब तमाचे जड़ते.

दर्द तो ज़्यादा नहीं होता था, मगर अपमान ज़रूर लगता था.

इस सबका अंत बहुत बुरी तरह से हुआ. पहली बात, छोटे डैडी ने अपनी आँखें ख़राब कर लीं: पलंग के नीचे, ऍटिक पे, घास के कमरे में छुप कर पढ़ना कोई मज़ाक तो नहीं है, वहाँ अंधेरा जो होता है. इसके अलावा, पिछले कुछ दिनों से वह एक और चालाकी करने लगे थे, अपने आप को सिर तक कंबल से ढाँक लेते और रोशनी के लिए सिर्फ एक छोटा सा छेद छोड़ देते. लेटे-लेटे और अंधेरे में पढ़ना तो बेहद हानिकारक है. छोटे डैडी को चश्मा लग गया.

इसके अलावा, छोटे डैडी कविताएँ बनाते थे:

उसने देखा बिल्ली को और बोला – ये लई
बिल्ली!
उसने देखा कुत्ते को और बोला – तूज़िक, बैठ
कहाँ है तेरी हैट?
उसने देखा मुर्गे को बोला – मुर्गे, ए मुर्गे सुन,
कितने का है दंत मंजन?
देखा अपने पापा को और बोला – “पॉप्स!
मुझे दे लॉलीपॉप्स !

दादा और दादी को कविता बहुत अच्छी लगी. उन्होंने उसे लिख लिया. वे उसे मेहमानों को सुनाते. उन्हें भी लिख लेने को कहते. अब, जब भी मेहमान आते, छोटे डैडी से कहा जाता:
 “अपनी कविता सुना!”

और छोटे डैडी ख़ुशी-ख़ुशी अपनी नई कविता सुनाते. ये कविता बिल्ली के बारे में थी और इस तरह ख़तम होती थी:

वास्का बिल्ला नहीं डरा
खिड़की पे झट् उछल पड़ा!

मेहमान खूब हँसे. वे समझ रहे थे कि ये एकदम बकवास कविता है. ऐसी तो हर कोई लिख सकता है. मगर छोटे डैडी सोचते कि कविता बहुत अच्छी है. वो सोचते कि मेहमान ख़ुशी के मारे हँस रहे हैं. उन्हें विश्वास हो गया कि वो लेखक बन गए हैं. वो सभी बर्थ-डे पार्टीज़ में कविताएँ सुनाते. वो केक काटने के पहले कविता सुनाते, केक काटने के बाद भी कविता सुनाते. जब लीज़ा आण्टी की शादी हुई, तब भी उन्होंने कविता सुनाई. मगर इस बार कुछ ठीक नहीं रहा, क्योंकि कविता इस तरह शुरू हो रही थी:

शादी है आण्टी लीज़ की!
किसे थी उम्मीद ऐसे सरप्राईज़ की?

इस कविता के बाद मेहमान बड़ी देर तक हँसते रहे, मगर आण्टी लीज़ा रोने लगी और अपने कमरे में चली गई. दूल्हा भी नहीं हँसा, हालाँकि वह रोया भी नहीं. ये सच है कि डैडी को सज़ा नहीं दी गई. मगर आण्टी लीज़ा का अपमान करने का उनका इरादा बिल्कुल नहीं था. वैसे भी वो ये महसूस कर रहे थे कि कुछ परिचितों को अब उनकी कविताएँ अच्छी नहीं लगतीं. एक बार तो उन्होंने अपने कानों से एक मेहमान को दूसरे से कहते हुए भी सुना:
 “अब ये ‘वन्डरकिड’ फिर से अपनी बकवास सुनाएगा!”

तब डैडी दादी के पास गए और पूछने लगे:
 “दादी, ‘वन्डरकिड’ का क्या मतलब होता है?”
 “वो एक असाधारण बच्चा होता है,” दादी ने कहा.
 “वो क्या करता है?”
 “वो, बस, वायलिन बजाता है, या मन ही मन में गिनती कर लेता है, या मम्मा से हज़ारों सवाल नहीं पूछता.”
 “और, जब वो बड़ा हो जाता है तो?”
 “तब वो अक्सर साधारण बच्चा बन जाता है.”
 “थैंक्यू,” डैडी ने कहा, “मैं समझ गया.”

इसके बाद उन्होंने कभी किसी बर्थ-डे पार्टी में अपनी कविता नहीं सुनाई.



वो कहते कि उनके सिर में दर्द हो रहा है. तब से काफ़ी दिनों तक उन्होंने कविताएँ भी नहीं लिखीं. अब भी, जब उन्हें अपनी कविताएँ पढ़ने के लिए कहा जाता है, तो फ़ौरन उनके सिर में दर्द शुरू हो जाता है.

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