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जब डैडी ने लिखना
सीखा
डैडी ने छुटपन में पढ़ना तो बहुत जल्दी सीख
लिया था.
उन्हें सिर्फ इतना बताना काफ़ी था
कि ये है ‘अ’, ये रहा ‘ब’. और वो वर्णमाला के सारे अक्षर सीख गए. उन्हें इसमें बहुत
मज़ा आता था. वो छोटी-छोटी किताबें पढ़ने लगे, तस्वीरें देखने लगे. मगर लकीरें खींचना
उन्हें बिल्कुल पसन्द नहीं था. छोटे डैडी हाथ में ठीक तरह से कलम पकड़ना ही नहीं चाहते
थे. गलत तरह से पकड़ना भी नहीं चाहते थे. उन्हें बस पढ़ना पसन्द था, लिखना पसन्द नहीं
था. पढ़ना दिलचस्प था, लिखना – ‘बोरिंग’.
मगर छोटे डैडी के मम्मी-पापा उनसे कहते:
“अगर
लिखेगा नहीं – तो पढ़ेगा भी नहीं!”
और आगे कहते:
“सीधी
लकीरें बना!”
पूरे दिन, सुबह से शाम तक, छोटे डैडी के कानों
में ये ही शब्द गूंजते रहते. हर रोज़ बड़ी बेदिली से वो सीधी लकीरें बनाते.
ये लकीरें बड़ी भयानक होती थीं. वे आड़ी-टेढ़ी,
कूबड़ वाली होती थीं. वे किसी डरावने लूले-लंगड़े की तरह दिखती थीं. छोटे डैडी को भी
उनकी ओर देखने से घिन आती थी.
हाँ, लकीरें उनसे नहीं बनती थीं. मगर धब्बे
लाजवाब बन जाते थे. इतने बड़े-बड़े और इतने ख़ूबसूरत धब्बे तो आज तक किसीने नहीं बनाए
थे. इस बात से सभी सहमत थे. अगर धब्बों के द्वारा लिखना सिखाया जाता तो छोटे डैडी दुनिया
में सबसे अच्छा लिख रहे होते.
छोटे डैडी को शर्मिन्दा किया जाता, डाँटा जाता,
सज़ा भी दी जाती. उन्हें पाठ को दो-दो, तीन-तीन बार लिखने को कहा जाता. मगर जितना ज़्यादा
वो लिखते, उतनी ही बुरी लकीरें और उतने ही बढ़िया धब्बे बनते थे.
उन्हें समझ में नहीं आता था कि उन्हें क्यों
परेशान किया जाता है. उन्होंने अक्षर तो सीख ही लिए थे. लिखना भी वो अक्षर ही चाहते
थे. उनसे कहा जाता कि बिना लकीरों के अक्षर नहीं बनेंगे. मगर वो इस पर विश्वास नहीं
करते थे. और, जब वो स्कूल जाने लगे, तो सबको इतना आश्चर्य हुआ कि वो पढ़ते कितना अच्छा
हैं और लिखते कितना बुरा हैं. क्लास में सबसे बुरी हैंडराईटिंग थी उनकी.
कई साल बीत गए. छोटे डैडी बड़े हो गए. आज तक
उन्हें पढ़ना पसन्द है, मगर लिखना अच्छा नहीं लगता. उनकी हैंडराईटिंग इतनी बुरी और बदसूरत
है कि कई लोगों को ऐसा लगता है कि वो मज़ाक कर रहे हैं.
डैडी को अक्सर इस बात से शर्म आती है, अटपटा
लगता है.
कुछ ही दिन पहले डैडी से पोस्ट-ऑफ़िस में पूछा
गया:
“आप,
क्या कम पढ़े-लिखे हैं?”
डैडी बुरा मान गए.
“नहीं,
क्या कह रहे हैं, मैं पढ़ा-लिखा हूँ!” उन्होंने कहा.
“और,
आपने ये कौनसा अक्षर लिखा है?” उनसे पूछा गया.
“ये
है ‘यू’,” हौले से डैडी ने कहा.
‘यू’?
ऐसा ‘यू’ कौन लिखता है?”
“मैं”,
डैडी ने धीरे से कहा.
सब लोग हँसने लगे.
आह, अब कितना दिल चाहता है डैडी का कि सुन्दर
अक्षरों में लिखें, साफ़-सुथरी, बढ़िया हैंडराईटिंग में, बिना धब्बों के. कितना दिल चाहता
है कलम को सही ढंग से पकड़ने का! कितना अफ़सोस होता है उन्हें कि वो बुरी लकीरें बनाया
करते थे! मगर, अब कुछ भी नहीं किया जा सकता. क़ुसूर उन्हीं का है.
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