चुक और गेक
लेखक – अर्कादी गैदार
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास
जंगल में
नीले पहाड़ के पास एक आदमी रहता था. वह बहुत काम करता था, मगर काम था, कि ख़त्म ही नहीं होता था, और वह छुट्टी लेकर घर नहीं जा
सकता था.
आखिर में, जब सर्दियां आईं तो वह पूरी तरह
उकता गया और उसने सुपरवाइज़र से इजाज़त लेकर अपनी बीबी को ख़त लिखा कि वह बच्चों को
लेकर उसके पास आ जाए.
उसके दो
बेटे थे – चुक और गेक.
और वे
अपनी माँ के साथ बहुत दूर स्थित खूब बड़े शहर में रहते थे, जिससे अच्छा कोई और शहर
दुनिया में हो ही नहीं सकता था. दिन-रात इस शहर के टॉवर्स के ऊपर लाल सितारे
चमकते.
और, बेशक, इस शहर का नाम था – मॉस्को.
उस समय, जब पोस्टमैन ख़त लेकर सीढियां चढ़ रहा था, चुक और गेक के बीच युद्ध हो रहा
था. संक्षेप में कहें तो वे लड़ रहे थे और चीख रहे थे.
ये झगड़ा शुरू क्यों हुआ था, यह तो मैं भूल भी
गया. मगर मुझे याद आता है, कि या तो चुक ने गेक के हाथ से माचिस की खाली डिब्बी छीन
ली, या, इसके विपरीत गेक ने
चुक के हाथ से मोम का डिब्बा खींच लिया था.
अभी अभी
इन दोनों भाइयों ने एक दूसरे पर एक बार मुक्के बरसाये थे, और दूसरी बार बरसाने
ही वाले थे, कि घंटी बजी, और उन्होंने घबराकर एक दूसरे की ओर देखा.
उन्होंनें
सोचा कि उनकी माँ आई है! और इस माँ का अजीब स्वभाव था. वह झगड़ा करने पर गुस्सा
नहीं करती थी, ना ही चिल्लाती थी, बल्कि सिर्फ झगड़ा करने वालों को
अलग-अलग कमरों में एक-दो घंटे के लिए भेज देती और उन्हें एक दूसरे के साथ खेलने
नहीं देती. और एक घंटे में – ना कम, ना ज़्यादा – पूरे साठ मिनट होते हैं. और दो
घंटों में तो इससे भी ज़्यादा.
इसलिए, दोनों भाइयों ने फ़ौरन आँसू पोंछ
लिए और दरवाज़ा खोलने के लिए भागे.
मगर पता
चला कि, ये माँ नहीं थी, बल्कि पोस्टमैन
था, जो ख़त लाया था.
तब वे
चिल्लाए:
ये पापा
का ख़त है! हाँ, हाँ, पापा का! और, शायद, वो जल्दी ही आयेंगे. अब तो वे
खुशी के मारे उछलने लगे, कूदने
लगे और स्प्रिंग के बिस्तर पर कलाबाजियां दिखाने लगे. क्योंकि, हालांकि मॉस्को सबसे बढ़िया शहर
है, मगर जब पापा पूरे साल भर से घर में
नहीं हैं, तब मॉस्को में भी बोरियत होने
लगती है.
और वे
इतने खुश हो गए, कि माँ
कब भीतर आई, इसका उन्हें पता ही नहीं चला.
उसे यह
देखकर बड़ा अचरज हुआ, कि उसके
दोनों ख़ूबसूरत बेटे, पीठ के
बल लेटे हुए चिल्ला रहे हैं, और दीवार पर एडियों से ठकठक कर
रहे हैं, और इतनी जोर से, कि दीवान के ऊपर लगी तस्वीरें
थरथरा रही हैं और दीवार घड़ी की स्प्रिंग भी गुनगुना रही है.
मगर जब
माँ को पता चला कि इतनी खुशी किसलिए है, तो उसने
बच्चों को नहीं डांटा.
उसने
सिर्फ उन्हें दीवान से नीचे खीच लिया.
उसने किसी
तरह अपना ओवरकोट उतारा और बालों से बर्फ के कणों को झटके बिना, जो अब पिघल रहे थे, और उसकी काली भंवों के ऊपर
चिंगारियों की तरह चमक रहे थे, खत को
हाथ में लिया.
सब जानते
हैं, कि ख़त खुशी से भरे होते हैं, या दुःख देने वाले, और इसलिए, जब माँ पढ़ रही थी, चुक और गेक उसने चहरे के भावों को देखते रहे.
पहले तो
माँ ने नाक-भों चढ़ाई, और उन्होंने भी मुँह बनाया. मगर बाद में वह मुस्कुराने लगी, और वे समझ गए कि ये
खुशी से भरा ख़त है. “पापा नहीं आयेंगे,” ख़त को रखते हुए माँ ने कहा.
“उनके पास ढेर सारा काम है, और उन्हें मॉस्को नहीं आने देंगे.
धोखा खाए
हुए चुक और गेक ने परेशानी से एक दूसरे की ओर देखा. ख़त बेहद दुःख भरा लग रहा
था.
उन्होंने
फ़ौरन अपने मुँह फुला लिए और गुस्से से माँ की ओर देखने लगे, जो न जाने क्यों
मुस्कुरा रही थी.
“वो नहीं
आयेंगे,” माँ ने आगे कहा, “मगर उन्होंने हम सब को कुछ दिनों के लिए अपने पास बुलाया
है.”
चुक और
गेक दीवान से कूदे.
“वह बहुत अजीब इन्सान हैं,” माँ ने आह भरी. “
आसान है कहना कि आ कुछ दिनों के लिए आ जाओ! जैसे वो हमें ट्राम में बिठाकर ले
जायेंगे....”
“हाँ, हाँ,” चुक ने फ़ौरन कहा, “जब वो बुला रहे हैं, तो हम ट्राम में
बैठेंगे और चल पड़ेंगे.”
“तुम
बेवकूफ हो,” माँ ने कहा. “वहाँ रेल से हज़ारों किलोमीटर सफ़र करके जाना
पड़ता है. और फिर घोड़ों वाली बर्फ की स्लेज में तायगा से गुज़रना पड़ता है. और तायगा
में भालू या रीछ से टकराओगे. औए ये कितना अजीब ख़याल है! तुम लोग खुद ही
सोचो!”
“हेय!-हेय!”
चुक और गेक ने आधा सेकण्ड भी नहीं सोचा, और एक सुर में ऐलान कर दिया, कि वे एक हज़ार तो
क्या, सौ हज़ार
किलोमीटर भी जायेंगे. उन्हें किसी बात का डर नहीं लगता. वे बहादुर हैं. कल
उन्होंने कम्पाउंड में आये हुए अनजान कुत्ते को पत्थर मार-मार के भगा दिया
था.
और वे
काफी देर हाथ हिला-हिला कर, पाँव पटक कर, उछल-उछल कर बात करते रहे, और माँ चुपचाप बैठे
हुए उनकी बातें सुनती रही, सुनाती रही. आखिर में वह हँस पडी, दोनों के हाथ पकड़ कर
उन्हें घुमाया और दीवान पर पटक दिया.
पता है, वह कब से ऐसे ख़त का इंतज़ार
कर रही थी, और वह जानबूझकर चुक और गेक को चिढा रही थी, क्योंकि वह खुशमिजाज़ तबियत
की थी.
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