शनिवार, 30 सितंबर 2023

Chuk & Gek - 8

 

 

तो, ऐसे लोगों के साथ क्या किया जाए? डंडे से मारोगे? जेल में डाल दोगे? बेड़ियाँ पहनाकर लेबर कैम्प भेजोगे? नहीं, मम्मा ने ऐसा कुछ भी नहीं किया. उसने गहरी सांस ली, बेटों को भट्टी से नीचे उतरने का हुक्म दिया, नाक पोंछ कर मुँह हाथ धोने को कहा, और खुद वाचमैन से पूछने लगी कि अब वह क्या करे.

वाचमैन ने बताया कि खोजी टीम अर्जेंट आदेश के अनुसार अल्कराश तंग घाटी में गई है और दस दिनों से पहले नहीं लौटेगी.

“फिर ये दस दिन हम कैसे रहेंगे?” मम्मा ने पूछा. “हमारे पास तो खाने-पीने का कोई सामान भी नहीं है.”

“ऐसे ही रहोगे,” वाचमैन ने जवाब दिया. “ब्रेड मैं आपको दूंगा, ये खरगोश भी दे दूँगा – छीलकर पका लीजिये. और मैं कल दो दिनों के लिए तायगा जा रहा हूँ, मुझे जालियाँ देखना है.”

“ये तो अच्छा नहीं है,” मम्मा ने कहा. “हम अकेले कैसे रहेंगे? हम तो यहाँ कुछ भी नहीं जानते. और यहाँ जंगल, जंगली जानवर हैं...”

“मैं दूसरी बन्दूक छोड़ जाता हूँ,” वाचमैन ने कहा, “शामियाने के नीचे जलाऊ लकड़ी है, पानी पहाड़ी के पीछे झरने में. अनाज बैग में, नमक डिब्बे में. और मेरे पास – मैं आपसे साफ़-साफ़ कहता हूँ, आपकी देखभाल करने का समय नहीं है...”

“कितना दुष्ट अंकल है!” गेक फुसफुसाया. “चल, चुक, हम और तुम उससे कुछ कहते हैं!”

“और लो!” चुक ने इनकार कर दिया. “तब तो वह हमें एकदम घर के बाहर ही निकाल देगा. तू ठहर जा, पापा आयेंगे, हम उन्हें सब कुछ बता देंगे.”

“कहाँ के पापा! पापा को अभी बहुत देर है...”

गेक मम्मा के पास गया, उसके घुटने पर बैठा और, भंवे चढ़ाकर, कठोरता से बदतमीज़ वाचमैन के चहरे की ओर देखने लगा.

वाचमैन ने अपना फ़र का चोगा उतार दिया और मेज़ के पास, रोशनी की ओर गया. और तब गेक ने देखा कि चोगे का कंधे से पीठ तक का बहुत बड़ा हिस्सा कट गया था.

“भट्टी से सब्जियों का सूप निकाल लो,” वाचमैन ने मम्मा से कहा. “शेल्फ पर चम्मच और कटोरे हैं, बैठो और खाओ. और मैं अपना चोगे की मरम्मत करता हूँ.”

“तुम मेज़बान हो,” मम्मा ने कहा. “तुम निकालो, तुम ही परोसो. और चोगा मुझे दो, मैं तुमसे ज़्यादा अच्छी तरह पैबंद लगा दूंगी.”

वाचमैन ने उसकी ओर देखा और उसकी नज़र गेक की गंभीर नज़र से टकराई.

“एहे! देख रहा हूँ कि आप जिद्दी हैं,” वह बुदबुदाया, मम्मा की तरफ चोगा बढाया और शेल्फ पर चढ़ गया क्रॉकरी निकालने.

“ये कहाँ पर फट गया?” चुक ने चोगे के छेद की तरफ इशारा करते हुए पूछा.

“भालू के साथ हाथापाई हो गई. उसने मुझे नोंच लिया,” वाचमैन ने बेमन से जवाब दिया और सूप का बड़ा बर्तन दन् से रख दिया.

“सुन रहे हो, गेक?” जब वाचमैन बाहर दालान में चला गया, तो चुक ने कहा. “उसने भालू से लड़ाई की है, और शायद, इसीलिये वह आज इतने गुस्से में है.”

गेक ने भी सब कुछ सुना था. मगर उसकी मम्मा का कोई अपमान करे, यह उसे अच्छा नहीं लगता था, हाँलाकि ये ऐसा इंसान था, जो खुद भालू से भी झगड़ा कर सकता था, उससे लड़ाई कर सकता था.

शुक्रवार, 29 सितंबर 2023

Chuk & Gek - 7

 

 

 

7

लेखक: अर्कादी गैदार 

अनुवाद: आ. चारुमति रामदास 


उन्होंने नहीं सुना कि गाडीवान कैसे निकल गया और कैसे मम्मा भट्टी पर चढ़कर उनके पास लेट गई. उनकी आंख तब खुली जब कॉटेज में पूरी तरह अन्धेरा हो गया था. सभी फ़ौरन उठे, क्योंकि पोर्च में पैरों की आवाज़ सुनाई दी, फिर दालान में गड़गड़ाहट हुई – हो सकता है, कि कोई फावड़ा गिर गया हो. दरवाज़ा खुला, और हाथ में लालटेन लिए वाचमैन भीतर आया, और उसके साथ बड़ा, झबरा कुत्ता. उसने कंधे से राईफल उतारी, मारे हुए हिरन को बेंच पर फेंका और भट्टी की तरफ लालटेन उठाकर पूछा:

“क्या यहाँ मेहमान आये हैं?

“मैं जिओलोगिकल टीम के प्रमुख सिर्योगिन की पत्नी हूँ,” मम्मा ने भट्टी से नीचे उतरते हुए कहा, “और ये हैं उनके बच्चे. अगर चाहो, तो डॉक्यूमेंट्स देख लो.”

“ये रहे डॉक्यूमेंट्स : भट्टी पर बैठे हैं,” वाचमैन चहका और उसने उत्तेजित चुक और गेक के चेहरों पर लालटेन की रोशनी डाली. “बिलकुल बाप पर गए हैं – एकदम कॉपी! खासकर ये मोटू.” और उसने चुक के बदन में उंगली गड़ाई. 

चुक और गेक बुरा मान गए: चुक – क्योंकि उसे ‘मोटू कहा गया था, और गेक – इसलिए कि वह हमेशा चुक की अपेक्षा खुद को पापा से ज़्यादा मिलता-जुलता समझता था.

“बताइये, आप किसलिए आई हैं?” मम्मा की तरफ देखकर वाचमैन ने पूछा. “आपसे कहा गया था कि ना आयें.”

“कैसे ना आयें? किसे कहा गया था कि ना आयें?”

“हाँ, ऐसा ही कहा गया था कि ना आयें. मैं खुद सिर्योगिन से टेलीग्राम लेकर स्टेशन गया था, और टेलीग्राम में साफ़-साफ़ लिखा गया था “दो सप्ताह रुक जाओ. हमारी टीम फ़ौरन तायगा जा रही है”. जब सिर्योगिन लिखता है, “रुको” – मतलब रुकना चाहिए था, और आप अपनी मन मर्ज़ी से चल पडीं.”

“कैसा टेलीग्राम?” – मम्मा ने पलट कर पूछा. “हमें कोई टेलीग्राम नहीं मिला. – और, जैसे सहारे की तलाश में, उसने परेशानी से चुक और गेक की ओर देखा.

मगर उसकी नज़र से चुक और गेक डर के मारे आंखें फाड़ कर एक दूसरे की तरफ़ देखने लगे, और फ़ौरन भट्टी में और भी गहरे घुस गए.

“बच्चों,” मम्मा ने संदेह से उनकी तरफ़ देखते हुए पूछा, - “तुम लोगों को मेरी गैरहाज़िरी में कोई टेलीग्राम मिला था?      

भट्टी के ऊपर सूखी छिपटियाँ, झाडू चरमराने लगे, मगर सवाल का जवाब नहीं आया.

“जवाब दो, दुखदायी!” तब मम्मा ने कहा. “आप लोगों को, शायद, मेरी गैरहाज़िरी में टेलीग्राम मिला था, और आप लोगों ने मुझे नहीं दिया?

कुछ और पल बीते, और फिर भट्टी से एक सुर में दोस्ताना बिसूरने की आवाज़ सुनाई दी. चुक नीची आवाज़ में, एक सुर में रो रहा था, और गेक पतली आवाज़ में आँसू बहाते हुए.

“तो, ये है, मेरा दुर्भाग्य!” मम्मा चीखी. “यही हैं, जो मुझे कब्र में ले जायेंगे! अब आप भोंपू बजाना बंद करो और साफ़-साफ़ बताओ कि हुआ क्या था.”

मगर, यह सुनकर कि माँ कब्र में जाने की तैयारी कर रही है, चुक और गेक और ज़ोर से बिसूरने लगे, और कुछ ही देर में, एक दूसरे को मारते हुए, और एक दूसरे पर दोष लगाते हुए, उनहोंने अपनी दर्द भरी कहानी बता दी.

गुरुवार, 28 सितंबर 2023

Chuk & Gek - 6

 

6

 

  मम्मा की नींद इसलिए टूटी, क्योंकि उसके दोनों प्यारे बेटे दोनों तरफ से बेचैनी से उसे धकेल रहे थे और करवटें बदल रहे थे.

वह चुक की ओर मुडी और उसे महसूस हुआ कि किनारे से उसके बदन में कोई कड़ी और नुकीली चीज़ चुभ रही है. उसने कंबल के नीचे हाथ से टटोला और जाल वाली स्प्रिंग बाहर निकाली, जिसे किफ़ायती चुक चुपके से अपने साथ बिस्तर में ले आया था.

मम्मा ने स्प्रिंग को पलंग के पीछे फेंक दिया. चाँद की रोशनी में उसने गेक के चहरे की ओर देखा और समझ गई कि उसे परेशान करने वाला सपना आ रहा है.

सपना कोई स्प्रिंग तो नहीं है, और उसे बाहर नहीं फेंक सकते. मगर उसे शांत किया जा सकता है. मम्मा ने गेक को पीठ से एक करवट लिटा दिया और, हिलाते हुए हौले से उसके गरम माथे पर फूंक मारी.

गेक ने जल्दी ही गहरी सांस ली, मुस्कुराया, और इसका मतलब यह था कि बुरा सपना ख़त्म हो गया था.

तब मम्मा उठी और स्टॉकिंग्स में, बिना फेल्ट के जूतों के, खिड़की के पास आई.

अभी उजाला नहीं हुआ था, और आसमान सितारों से भरा था. कुछ तारे काफी ऊंचे चमक रहे थे, और कुछ अँधेरे तायगा के पीछे की ओर, काफी नीचे चमक रहे थे.

और – अचरज की बात थी – वहीं और उसी तरह, नन्हें गेक की तरह, वह सोच रही थी, कि इस जगह से आगे, जहाँ उसका बेचैन पति खिंचा चला आया था, दुनिया में कम ही जगहें होंगी.

अगले पूरे दिन रास्ता जंगल और पहाड़ों से होकर जा रहा था. चढ़ावों पर गाडीवान स्लेज से नीचे कूद जाता और बर्फ पर बगल में चलने लगता. मगर खड़ी ढलानों पर स्लेज इतनी तेज़ी से भागती, कि चुक और गेक को लगता जैसे वे घोड़ों और स्लेज समेत आसमान से सीधे धरती पर गिर रहे हैं.

आखिरकार, शाम को, जब लोग और घोड़े पूरी तरह थक चुके थे, गाडीवान ने कहा:

“तो, लो, आ गए! इस टापू के पीछे मोड़ है. यहाँ, खुले मैदान में उनकी ‘बेस है...एय, हो-ओ...! चलो!”

खुशी से चीखते हुए चुक और गेक उछाले, मगर स्लेज ने झटका लिया और वे धम् से फूस में गिर गए.

मुस्कुराती हुई मम्मा ने ऊनी स्कार्फ निकाल दिया और सिर्फ रोएंदार हैट में रह गई.

ये रहा मोड़. स्लेज हौले से मुडी और तीन छोटे-छोटे घरों तक आई, जो हवा से सुरक्षित छोटे से किनारे पर थे.

बड़ी अजीब बात है! ना तो कुत्ते भौंके, ना ही कोई लोग दिखाई दिए. भट्टी के पाइपों से धुआँ भी नहीं निकल रहा था. सारे रास्ते गहरी बर्फ से ढंके थे, और चारों और खामोशी थी, जैसे कब्रिस्तान में सर्दियों में होती है. सिर्फ सफ़ेद किनारी वाले मैगपाई एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर फुदक रहे थे.

“तू हमें कहाँ ले आया है?” मम्मा ने घबराहट से गाडीवान से पूछा. “क्या हमें यहाँ आना था?

“जहाँ आना चाहते थे, वहीं लाया हूँ,” गाडीवान ने जवाब दिया. “ये घर कहलाते हैं “एक्सप्लोरेशन- जिओलोजिकल बेस – 3. खम्भे पर बोर्ड भी लगा है...पढ़िए. हो सकता है आपको बेस – 4 पर जाना है? तो करीब दो सौ किलोमीटर्स एकदम अलग दिशा में जाना होगा.”

“नहीं, नहीं!” बोर्ड की ओर देखकर मम्मा ने जवाब दिया. “हमें यही ‘बेस’ चाहिए. मगर तुम देखो: दरवाजों पर ताले लगे हैं, पोर्च बर्फ से ढंकी है, मगर लोग कहाँ चले गए?

“मुझे मालूम नहीं कि वे कहाँ जा सकते हैं,” गाडीवान भी हैरान था. “पिछले हफ्ते हम यहाँ सामान लाये थे : आटा, प्याज़, आलू, सभी लोग यहीं थे: आठ आदमी, नौंवा लीडर, वाचमैन समेत कुल दस...ये हुई न फ़िक्र की बात! कहीं भेडिये तो सब को नहीं खा गए...आप रुकिए, मैं वाचमैन के पास जाता हूँ.”

और भेड़ की खाल का ओवरकोट उतारकर गाडीवान बर्फ के टीले पार करते हुए सबसे अंतिम झोंपड़ी की तरफ गया.

जल्दी ही वह वापस लौट आया:

“झोंपड़ी खाली है, मगर भट्टी गरम है. मतलब, यहाँ वाचमैन है, मगर, लगता है कि शिकार पर निकल गया है. खैर, रात तक आयेगा और आपको सब बताएगा.”

“वो मुझे क्या बताएगा!” मम्मा ने आह भरी. “मैं खुद ही देख रही हूँ, लोग यहाँ काफी समय से नहीं हैं.”

“ये तो मुझे नहीं पता, कि वो क्या बताएगा,” गाडीवान ने जवाब दिया. “मगर कुछ न कुछ तो बताएगा, इसीलिये तो वह वाचमैन है.”

बड़ी मुश्किल से वे वाचमैन वाले पोर्च तक आये, जहाँ से एक संकरी पगडंडी जंगल को जाती थी.

वे दालान में आये और फावड़ों, झाडुओं, कुल्हाड़ियों, डंडों, जमी हुई भालू की खाल के करीब से, जो लोहे के हुक से लटक रही थी, झोंपड़ी में गए. उनके पीछे-पीछे गाडीवान उनका सामान खींचकर ला रहा था.

झोंपड़ी में गर्माहट थी. गाडीवान घोड़ों को चारा देने गया, और मम्मा चुपचाप बेहद डरे हुए बच्चो के कपडे उतारने लगी. 

“जा रहे थे पापा के पास, जा रहे थे – लो, आ गए!”

मम्मा बेंच पर बैठकर सोचने लगी. क्या हो गया है, ‘बेस खाली क्यों है और अब करना क्या चाहिए? क्या वापस जाएँ? मगर उसके पास तो पैसे सिर्फ इतने ही थे कि गाडीवान का किराया दे सके. मतलब, वाचमैन के वापस आने तक इंतज़ार करना होगा. मगर गाडीवान तो तीन घंटे बाद वापस चला जाएगा, और अगर वाचमैन भी जल्दी वापस न आया तो? तब क्या होगा? और यहाँ से सबसे नज़दीक के स्टेशन तक और टेलीग्राफ ऑफिस तक करीब सौ किलोमीटर्स की दूरी है!

गाडीवान भीतर आया, झोंपड़ी पर नज़र डालकर उसने नाक से गहरी सांस ली, भट्टी के पास गया और फ्लैप खोल दिया.

“वाचमैन रात तक वापस आयेगा,” उसने उन्हें धीरज बंधाया. “भट्टी में गोभी के सूप का बर्तन है. अगर वह लम्बे समय के लिए गया होता, तो वह अपने साथ सूप भी ले जाता...अगर आप कहें तो,” गाडीवान ने सुझाव दिया, “अगर बात ऐसी है, तो मैं कोई ठस-दिमाग़ नहीं हूँ. मैं आपको बिना किराए के स्टेशन तक पहुँचा दूँगा.”

“नहीं,” मम्मा ने मना कर दिया. “स्टेशन पर हमें कुछ नहीं करना है.”

फिर से चाय की केतली गरम की गई, सॉसेज गरम किया गया, खाया, पिया, और, जब तक मम्मा सामान संभालती रही, चुक और गेक गर्माहट भरी भट्टी पर चढ़ गए. यहाँ बर्च की झाड़ियों, गर्म भेड़ की खाल की और चीड़ की छिपटियों की खुशबू आ रही थी. और क्योंकि  परेशान मम्मा खामोश थी, तो चुक और गेक भी खामोश ही रहे. मगर देर तक तो खामोश नहीं रह सकते, इसलिए कोई काम न होने के कारण चुक और गेक फ़ौरन गहरी नींद में सो गए.

 

मंगलवार, 26 सितंबर 2023

Chuk & Gek - 5

 

5


लगभग शाम होते-होते, आह-उह करते, ऊंघते हुए तायगा से हैरान होते हुए, बिना किसी की नज़रों में पड़े, वे जा रहे थे. मगर चुक को, जिसे गाडीवान की पीठ के पीछे से रास्ता अच्छी तरह नज़र नहीं आ रहा था, बोरियत महसूस होने लगी. उसने मम्मा से पेस्ट्री या ‘बन’ के लिए पूछा. मगर मम्मा ने न तो उसे पेस्ट्री दी, ना ही ‘बन’. तब उसने मुँह बना लिया और कुछ भी न कर सकने के कारण गेक को धक्का देना और किनारे की तरफ दबाना शुरू कर दिया.

पहले तो गेक धीरज से सरकता रहा, मगर फिर उसे गुस्सा आ गया और उसने चुक पर थूक दिया. चुक को बहुत गुस्सा आया और वह लड़ाई पर उतर आया. मगर, चूंकि उनके हाथ भेड़ की खाल के फ़र वाले ओवरकोटों में बंधे हुए थे, इसलिए वे कुछ नहीं कर सके, सिवाय टोपियों से ढंके सिरों से एक दूसरे को धक्का देने के.    

मम्मा ने उनके तरफ देखा और हंसने लगी. और तभी गाडीवान ने घोड़ों पर चाबुक बरसाया – और घोड़े तीर की तरह भागे. दो झबरे, सफ़ेद खरगोश रास्ते पर उछले और नाचने लगे. गाडीवान चिल्लाया:

“ ओय, ओय! ...संभलना: दब जाओगे!”

शरारती खरगोश खुशी खुशी जंगल की तरफ भाग गए. चेहरे पर ताज़ी हवा बह रही थी. और, मजबूरन एक दूसरे से चिपक कर चुक और गेक स्लेज में पहाड़ के नीचे तायगा से और चाँद से मिलने जा रहे थे, जो अब पास ही स्थित नीले पहाड़ों के पीछे से ऊपर आ रहा था.

बिना किसी आदेश के घोड़े एक छोटी-सी बर्फ से ढंकी झोंपड़ी के पास खड़े हो गए.

“रात यहाँ बिताएंगे,” गाडीवान ने बर्फ में कूदते हुए कहा, “ये हमारा स्टेशन है.”

झोंपड़ी छोटी थी, मगर मज़बूत थी.

गाडीवान ने जल्दी से चाय की केतली गरम की: स्लेज से खाने-पीने के सामान वाली बैग लाये.

सॉसेज तो इतना जम गया था और कड़ा हो गया था, कि उससे कील भी ठोंकी जा सकती थी. सॉसेज को उबलते पानी से अच्छी तरह गरम किया गया, और ब्रेड के टुकड़ों को गरम स्टोव पर रखा गया.

चुक को भट्टी के पीछे एक टेढ़ी-मेढ़ी स्प्रिंग मिली, और गाडीवान ने उसे बताया कि यह स्प्रिंग जाल की है, जिससे हर तरह के जंगली जानवर को पकड़ा जाता है. स्प्रिंग पर जंग लगी थी और वह यूं ही बेकार पडी थी. ये बात चुक फ़ौरन समझ गया.

कुछ खाकर, चाय पीकर सो गए. दीवार के पास लकड़ी का चौड़ा पलंग था. गद्दे के बदले उस पर सूखे पत्ते बिछाए गए थे.

गेक को न तो दीवार के पास सोना अच्छा लगता था, न ही बीच में, उसे किनारे पर सोना अच्छा लगता था. और हालांकि वह बचपन से गाना सुनता आ रहा था : “बाय-बाय-लाडले, सोना नहीं किनारे”, मगर फिर भी गेक हमेशा किनारे पर ही सोता था.  

अगर उसे बीच में सुलाया जाता, तो वह नींद में सबके कंबल खीच लेता, कुहनियाँ मारता और चुक के पेट पर घुटना मारता रहता.

बिना कपड़े उतारे और भेड़ की खाल वाले ओवरकोटों से खुद को ढंककर, वे सो गए. चुक दीवार के किनारे, मम्मा बीच में, और गेक किनारे पर.

गाडीवान से मोमबत्ती बुझाई और भट्टी के ऊपर चढ़ गया. सभी फ़ौरन सो गए. मगर, बेशक, जैसा हमेशा होता है, गेक को प्यास लगी और वह जाग गया.

ऊंघते हुए उसने नमदे के जूते पहने, मेज़ के पास आया, केतली से पानी पिया और खिड़की के सामने स्टूल पर बैठ गया.

चाँद बादलों के पीछे था और, छोटी सी खिड़की से बर्फ के ढेर काले-नीले प्रतीत हो रहे थे.

“इत्ती दूर आये हैं हमारे पापा!” गेक को अचरज हुआ. और उसने सोचा कि शायद, इस जगह से आगे दुनिया में कोई और जगह नहीं है.

गेक ने ध्यान से सुना. उसे लगा, कि खिड़की के बाहर कोई खटखटा रहा है. ये खटखटाहट भी नहीं थी, बल्कि किसी के भारी-भारी कदमों के नीचे बर्फ चरमरा रही थी. ऐसा ही था! अँधेरे में किसी ने गहरी सांस ली, सरसराया, मुड़ गया, और गेक समझ गया कि खिड़की के पास से रीछ गुज़रा है.

“दुष्ट रीछ, तुझे क्या चाहिए? हम इतनी देर से पापा के पास जा रहे हैं, और तू हमें खाना चाहता है, ताकि हम उन्हें कभी भी न देखें?...नहीं, भाग जा, वरना लोग तुझे किसी बढ़िया बन्दूक या तेज़ धार वाली तलवार से मार डालेंगे!”

गेक यह सब सोच रहा था और बडबड़ा रहा था और उत्सुकता से तंग खिड़की के बर्फ जमे कांच से माथा सटा रहा था.

मगर तेज़ी से भागते हुए बादलों के पीछे से चाँद तेज़ी से बाहर आया. काले-नीले बर्फ के टीले नर्म मटमैली आभा से चमकने लगे, और गेक ने देखा कि रीछ तो वास्तव में रीछ नहीं है, बल्कि उनका खोला गया घोड़ा स्लेज के चारों ओर घूम रहा है और चारा खा रहा है.

चिड़चिड़ाहट हो रही थी. गेक पलंग पर चढ़ कर ओवरकोट के नीचे दुबक गया, और चूंकि उसने अभी-अभी बुरी बातों के बारे में सोचा था, इसलिए उसे सपना भी निराशाभरा ही आया.

 

गेक को आया अजीब सपना!

मानो भयानक तुर्वारोन

उगल रहा है, उबलता थूक,

धमका रहा है फौलादी मुट्ठी से.

 

चारों और है आग! बर्फ पर हैं निशान .

जा रही हैं फ़ौजी टुकड़ियां.

खींच रही हैं दूर से

टेढा-मेढा फासिस्ट झंडा और सलीब.

 

“रुको!” गेक ने चिल्लाकर उनसे कहा. “आप गलत जगह जा रहे हैं! यहाँ आना मना है!”

मगर कोई नहीं रुका, और किसी ने भी गेक की बात नहीं सुनी,

तब  गेक ने गुस्से से टीन का सिग्नल-पाईप उठाया, वो, जो चुक के जूतों के डिब्बे में पड़ा था, और उसे इतने ज़ोर से बजाया कि लोहे की बख्तरबंद ट्रेन के विचारमग्न कमांडर ने सिर उठाया, तैश में हाथ हिलाया – और उसके भारी और भयानक हथियार फ़ौरन आग उगलने लगे.

“अच्छा है!” गेक ने तारीफ़ की. “सिर्फ और फायर कीजिये, वरना एक ही बार फायर करना उनके लिए कम होगा....”

 

 

शुक्रवार, 22 सितंबर 2023

Chuk & Gek - 4

  

 

4

लेखक: अर्कादी गैदार 

अनुवाद: आ. चारुमति रामदास 

 

जब गेक जागा, तो पहिये खामोशी से, बिना बातें किये कम्पार्टमेंट के फर्श के नीचे टक -टक कर रहे थे. बर्फ जमी खिड़कियों से सूरज चमक रहा था. बिस्तर ठीक कर दिए गए थे. नहाया-धोया चुक सेब खा रहा था. और मम्मा और मूंछों वाले अंकल खुले हुए दरवाजों के सामने गेक के रात के कारनामों के बारे में बातें करते हुए ठहाके लगा रहे थे. चुक ने फ़ौरन गेक को पीले कारतूस की नोक वाली पेन्सिल दिखाई जो फ़ौजी अंकल ने उसे गिफ़्ट में दी थी.

मगर गेक को चीज़ों से कोई लगाव नहीं है और वह लालची भी नहीं है. वह बेशक, भुलक्कड़ और बुद्धू था. न सिर्फ वह रात को औरों के कुपे में घुस गया था – अभी भी उसे याद नहीं आ रहा था कि उसने अपनी पतलून कहाँ घुसेड़ दी थी. मगर वह गाने गा सकता था.

हाथ-मुँह धोकर और मम्मा को नमस्ते करके वह ठन्डे कांच से माथा सटाकर बैठ गया और देखने लगा, कि यह कैसा प्रदेश है, यहाँ लोग कैसे रहते हैं और क्या करते हैं.

और जब चुक एक दरवाज़े से दूसरे दरवाज़े पर जाकर मुसाफिरों से मिल रहा था, जो उसे खुशी-खुशी कोई न कोई चीज़ गिफ़्ट में दे रहे थे – कोई रबर का कॉर्क , कोई कील, कोई मुड़ी हुई सुतली का टुकड़ा – गेक ने खिड़की से बाहर काफी कुछ देख लिया था.

ये रहा जंगल का छोटा सा घर. बड़े-बड़े नमदे के जूतों में, एक कमीज़ पहने और हाथों में बिल्ली लिए एक लड़का उछल कर पोर्च में आया. त्राख!- बिल्ली फूले-फूले बर्फ के ढेर में गिरी और, अटपटेपन से ऊपर चढते हुए, नरम बर्फ पर कूद गई. मज़ेदार बात है, उसने बिल्ली को क्यों फेंक दिया? शायद, उसने मेज़ से कोई चीज़ खींच ली थी.

मगर...अब न तो वह घर है, न ही लड़का, ना बिल्ली – मैदान में एक कारखाना खडा है. मैदान सफ़ेद है, पाईप लाल. धुँआ काला और प्रकाश- पीला. दिलचस्प बात है, इस कारखाने में करते क्या हैं? ये है बूथ, और है भेड़ की खाल के ओवरकोट में लिपटा हुआ संतरी. भेड़ की खाल वाले ओवरकोट में संतरी है भारी-भरकम, और उसकी राइफल घास के तिनके जैसी पतली दिखाई दे रही है. मगर घुसने की कोशिश तो करके देखो!

फिर आया जंगल, नाचता हुआ. पेड़, जो बहुत नज़दीक थे, जल्दी-जल्दी उछल रहे थे, मगर दूर वाले पेड़ धीरे-धीरे हिल रहे थे, जैसे बर्फ की प्यारी नदी ने चुपचाप उन्हें घेर लिया हो.

गेक ने चुक को आवाज़ दी, जो काफी सारे गिफ़्ट्स लेकर कुपे में लौट आया था, और वे दोनों मिलकर बाहर का नज़ारा देखने लगे.

रास्ते में बड़े स्टेशन्स भी मिलते, जो प्रकाशमान थे, जिन पर एक साथ करीब सौ इंजिन फुसफुसा रहे थे और फुफ़कार रहे थे; बेहद छोटे स्टेशन्स भी मिलते – मगर, उस छोटे से स्टाल से बड़े नहीं थे, जो उनके मॉस्को वाले घर के पास, नुक्कड़ पर, छोटा-मोटा सामान बेचता था.       

कच्ची धातुओं, कोयले और मोटे-मोटे लकड़ी के लट्ठों से लदी रेलगाड़ियाँ भी मिलतीं.

उन्होंने गायों और बैलों से भरी एक रेलगाड़ी को पकड़ा. इस गाडी का इंजिन तो बेहद मामूली था और उसकी सीटी बहुत पतली थी, चीख जैसी, और तभी एक बैल ज़ोर से चिल्लाया: मू-ऊ! इंजिन ड्राइवर ने भी पीछे मुड़कर देखा, शायद, उसने सोचा, कि कोई बड़ा इंजिन उसके पास आ रहा है.

और एक जंक्शन पर तो वे शक्तिशाली, लोहे की बख्तरबंद ट्रेन के समीप रुके. तिरपालों में लिपटे हथियार खतरनाक तरीके से टॉवर्स से झांक रहे थे. रेड आर्मी के सैनिक खुशी से झूम रहे थे, हँस रहे थे और, तालियाँ बजाते हुए अपने हाथ गरम कर रहे थे.        

मगर चमड़े की जैकेट पहने एक आदमी बख्तरबंद ट्रेन के पास चुपचाप सोच में डूबा खडा था. चुक और गेक ने फैसला कर लिया कि ये, बेशक, कमांडर है, जो वराशिलोव से हुक्म का इंतज़ार कर रहा है, कि क्या दुश्मन के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया जाए.

हाँ, उन्होंने रास्ते में काफी कुछ देखा. अफ़सोस इस बात का था, कि बाहर बर्फ का तूफ़ान गरज रहा था और कम्पार्टमेंट की खिड़कियाँ अक्सर बर्फ से ढँक जाती थीं.

और आखिरकार, सुबह, ट्रेन एक छोटे से स्टेशन पर पहुँची. 

मम्मा ने चुक और गेक को नीचे उतारकर फ़ौजी से अपना सामान लिया ही था कि ट्रेन चल पडी.

सूटकेस बर्फ पर पड़े थे. लकड़ी का प्लेटफ़ॉर्म जल्दी ही खाली हो गया, मगर पापा तो उन्हें लेने आये ही नहीं.

तब मम्मा पापा पर गुस्सा करने लगी और बच्चों को सामान के पास छोड़कर गाड़ीवानों के पास ये पूछने के लिए गई कि पापा ने उनके लिए कौन सी स्लेज भेजी है, क्योंकि उस जगह तक, जहाँ वो रहते थे, तायगा में और सौ किलोमीटर जाना था.

मम्मा को बड़ी देर लग रही थी, और यहाँ, कुछ ही दूरी पर एक खतरनाक बकरा प्रकट हुआ. पहले तो उसने बर्फ से ढंके लट्ठे की छाल खाई, मगर बाद में बड़े घिनौने तरीके से मिमियाया और एकटक चुक और गेक की ओर देखने लगा.

तब चुक और गेक फ़ौरन सूटकेसों के पीछे दुबक गए, क्योंकि, क्या पता इस इलाके में बकरों को क्या चाहिए.

मगर तभी मम्मा आ गई. वह बहुत दु:खी नज़र आ रही थी और उसने बताया कि ,शायद, पापा को उनके निकलने के बारे में टेलीग्राम नहीं मिला और इसीलिये उन्होंने स्टेशन पर बच्चों के लिए घोड़े नहीं भेजे.

तब उन्होंने एक गाडीवान को बुलाया. गाडीवान ने बकरे को पीठ पर लम्बा चाबुक मारा, सामान लिया और उन्हें स्टेशन के बुफे में ले गया.

बुफे छोटा-सा था. काउंटर के पीछे, मोटा, चुक जितना ऊंचा समोवार भाप छोड़ रहा था. वह थरथरा रहा था, सीटी बजा रहा था, और उसकी घनी भाप, बादल के समान लकड़ी के तख्तों की सीलिंग तक जा रही थी, जिसके नीचे गरमाने के लिए आई गौरैया चहचहा रही थीं.

जब तक चुक और गेक चाय पी रहे थे, मम्मा गाडीवान से भाव तय कर रही थी : जंगल में उनकी जगह तक ले जाने का वह कितना लेगा. गाडीवान बहुत मांग रहा था – पूरे सौ रुबल्स. वैसे भी क्या कह सकते हैं: रास्ता तो वाकई में छोटा नहीं था. आखिरकार वे सहमत हो गए, और गाडीवान घर भागा – ब्रेड, घास और भेड़ की खाल के कोट लाने.

“पापा को मालूम ही नहीं है कि हम आ चुके हैं,” मम्मा ने कहा. “वो तो चौंक जायेंगे और खुश भी हो जायेंगे.”

“और मैं भी,” गेक सहमत हो गया, “हम चुपके से जायेंगे, और अगर पापा घर से बाहर गए हैं, तो हम सूटकेसें छुपा देंगे और खुद पलंग के नीचे छुप जायेंगे. अब ये पापा आये. बैठे. सोचने लगे. और हम खामोश, खामोश, खामोश हैं, और अचानक चिल्लायेंगे!”

“मैं पलंग के नीचे नहीं जाऊंगी,” मम्मा ने इनकार कर दिया, “और आवाज़ भी नहीं निकालूंगी. खुद ही लेटो, और चिल्लाओ...चुक, तू ये जेब में शक्कर क्यों छुपा रहा है? वैसे भी तेरी जेबें पूरी भरी हैं, जैसे कचरे का डिब्बा...”

“मैं घोड़े चराऊंगा,” चुक ने शान्ति से कहा. “गेक, ये ले, तू भी चीज़-केक का टुकड़ा ले ले, वरना तो तेरे पास कभी भी कुछ भी नहीं होता. सिर्फ मुझसे छीनना आता है.”

जल्दी ही गाडीवान आ गया. चौड़ी स्लेज में सामान रखा, घास फूस बिछा दी; कंबलों में, भेड़ की खाल के कोट में दुबक गए.

अलबिदा, बड़े शहरों, फैक्टरियों, स्टेशन्स, गाँव, देहात! अब आगे है सिर्फ जंगल, पहाड़ और फिर घना, अन्धेरा जंगल.