शुक्रवार, 7 नवंबर 2014

Seryozha - 17

अध्याय 17

प्रस्थान का दिन

जाने का दिन आ गया.
एक उदास दिन. बगैर सूरज का, बगैर बर्फ़ का. बर्फ़ तो ज़मीन पर रात भर में पिघल गई, सिर्फ़ उसकी पतली सतह छतों पर पड़ी थी. भूरा आसमान. पानी के डबरे. कहाँ की स्लेज : आंगन में निकलना भी जान पर आ रहा है.
और ऐसे मौसम में किसी भी चीज़ की उम्मीद नहीं कर सकते. मुश्किल से ही कोई अच्छी चीज़ हो सकती है...
मगर फिर भी कोरोस्तेल्योव ने स्लेज को नई डोरी बांध दी थी – सिर्योझा ने ड्योढ़ी में झाँक कर देखा – डोरी बांध दी गई थी.
मगर ख़ुद कोरोस्तेल्योव जल्दी जल्दी कहीं भागा.
मम्मा बैठी थी और ल्योन्या को खिला रही थी. वह बस उसे खिलाती ही रहती है, खिलाती ही रहती है...मुस्कुराते हुए उसने सिर्योझा से कहा:
 “देख, कैसी मज़ेदार नाक है इसकी!”
सिर्योझा ने देखा : नाक जैसी तो नाक है. ‘उसे इसकी नाक इसलिए अच्छी लगती है,’ सिर्योझा ने सोचा, ‘क्योंकि वह इससे प्यार करती है. पहले वह मुझे प्यार करती थी, मगर अब इसे प्यार करती है.’
और वह पाशा बुआ के पास चला गया. चाहे वह कितनी ही अंधविश्वासी हो, मगर वह उसके साथ रहेगी और उसे प्यार करती रहेगी.
 “तुम क्या कर रही हो?” उसने उकताई हुई आवाज़ में पूछा.
 “क्या देख नहीं रहे हो,” पाशा बुआ ने तर्कपूर्ण उत्तर दिया, “कि मैं कटलेट्स बना रही हूँ?”
 “इतने सारे क्यों?”
 किचन की पूरी मेज़ पर कच्चे गीले कटलेट्स बिखरे पड़े थे, ब्रेड के चूरे में लिपटे हुए.
 “क्योंकि हम सब को खाने के लिए चाहिए और जाने वालों को रास्ते के लिए.”
 “वे जल्दी चले जाएँगे?” सिर्योझा ने पूछा.
 “इतनी जल्दी नहीं. शाम को.”
 “कितने घंटे बाद?”
 “अभी बहुत सारे घंटों के बाद. अंधेरा हो जाएगा, तब ही जाएँगे. और जब तक उजाला है – नहीं जाएँगे.”
वह कटलेट्स बनाती रही, और वह खड़ा था, माथा मेज़ की किनार पर टिकाए, सोच रहा था.
’लुक्यानिच भी मुझे प्यार करता है, और वह और भी प्यार करने लगेगा, खूब खूब प्यार करेगा....मैं लुक्यानिच के साथ नाव में जाऊँगा और डूब जाऊँगा. मुझे धरती में गाड़ देंगे, जैसे परदादी को किया था. कोरोस्तेल्योव को और मम्मा को पता चलेगा और वे रोएँगे, और कहेंगे: हम उसे अपने साथ क्यों नहीं लाए, वह कितना समझदार, कितना आज्ञाकारी लड़का था; रोता नहीं था, दिमाग़ नहीं चाटता था, ल्योन्या तो उसके सामने – छिः नहीं, ऐसा नहीं होना चाहिए कि मुझे धरती में गाड़ दें, ये बड़ा डरावना होगा : अकेले पड़े रहो वहाँ...हम तो यहीं अच्छे से रहेंगे, लुक्यानिच मेरे लिए सेब और चॉकलेट लाया करेगा; मैं बड़ा हो जाऊँगा और दूर के जहाज़ का कप्तान बनूँगा, और कोरोस्तेल्योव और मम्मा बड़ी बुरी तरह रहेंगे, और फिर एक ख़ूबसूरत दिन वे आएँगे और कहेंगे : प्लीज़, लकड़ी काटने की इजाज़त दीजिए. और मैं कहूँगा पाशा बुआ से : इन्हें कल का सूप दे दो...’

यहाँ सिर्योझा को इतना दुख हुआ, कोरोस्तेल्योव और मम्मा पर इतनी दया आई कि वह आँसुओं से नहा गया. मगर जैसे ही पाशा बुआ चहकी, ‘हे मेरे भगवान!’ उसे अपना वादा याद आ गया जो उसके कोरोस्तेल्योव से किया था:
 “मैं फिर नहीं रोऊँगा!”
नास्त्या दादी आई अपने काले थैले के साथ और उसने पूछा, “मीत्या घर पर है?”
 “गाड़ी का इंतज़ाम करने गया है,” पाशा बुआ ने जवाब दिया. “अवेर्किएव दे ही नहीं रहा है, ऐसा बदमाश है.”
 “वो क्यों बदमाश होने लगा,” नास्त्या दादी ने कहा. “उसे ख़ुद को अपने काम के लिए कार की ज़रूरत है, ये हुई पहली बात. और दूसरी बात यह कि वह लॉरी तो दे रहा है न. सामान के साथ – इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है.”
 “सामान – बेशक,” पाशा बुआ ने कहा, “मगर मार्याशा को बच्चे के साथ कार में ज़्यादा अच्छा रहता.”
 “सिर पर चढ़ गए हैं, बहुत ज़्यादा,” नास्त्या दादी ने कहा. “हम तो बच्चों को कभी किसी गाड़ी-वाड़ी में नहीं ले गए, न तो कारों में, न लॉरियों में, और ऐसे ही उन्हें बड़ा कर दिया. बच्चे को लेकर कैबिन में बैठ जाएगी, और बस.”
सिर्योझा धीरे धीरे आँखें मिचकाते हुए सुन रहा था. वह जुदाई के ख़ौफ़ में डूबा हुआ था, जो अटल थी. उसके भीतर की हर चीज़ इकट्ठा हो रही थी, तन गई थी, जिससे कि इस आने वाले दुख का सामना कर सके. चाहे कैसे भी जाएँ, मगर वे जल्दी ही चले जाएँगे, उसे छोड़कर, मगर वह उन्हें प्यार करता है.
 “ये मीत्या क्या कर रहा है,” नास्त्या दादी ने कहा, “ मैं बिदा लेना चाहती थी.”
 “आप उन्हें छोड़ने नहीं जाएँगी?” पाशा बुआ ने पूछा.
 “मुझे एक कॉन्फ्रेंस में जाना है,” नास्त्या दादी ने जवाब दिया और वह मम्मा के पास गई. और ख़ामोशी छा गई. और आँगन में सब कुछ धूसर हो गया, और हवा चलने लगी. हवा से खिड़की की काँच थरथराते हुए झंकार कर रही थी. पानी के डबरे बर्फ़ की पतली सफ़ॆद चादर में बदल रहे थे.. और फिर से बर्फ़ गिरने लगी, हवा में तेज़ी से गोल-गोल घूमते हुए.
 “और अब कितने बचे हैं घंटे?” सिर्योझा ने पूछा.
 “अब कुछ कम हैं,” पाशा बुआ ने जवाब दिया, “मगर फिर भी अभी काफ़ी हैं.”
...नास्त्या दादी और मम्मा डाईनिंग रूम में, फ़र्नीचर के ढेर के बीच खड़े होकर बातें कर रही थीं.
 “ओह, कहाँ है वो,” नास्त्या दादी ने कहा, “ कहीं बिना मिले ही तो नहीं चला जाएगा, क्योंकि मालूम नहीं है कि उसे फिर से देख सकूँगी या नहीं.”
 ‘वह भी डरती है,’ सिर्योझा ने सोचा, ‘कि वे हमेशा के लिए चले जाएँगे और कभी वापस नहीं लौटेंगे.’

और उसने ग़ौर किया कि बिल्कुल अंधेरा हो चुका है, जल्दी ही लैम्प जलाना पड़ेगा.
ल्योन्या रोने लगा. मम्मा उसके पास भागी, सिर्योझा से क़रीब क़रीब टकराते टकराते बची और प्यार से उससे बोली, “तुम किसी चीज़ से अपना दिल बहलाओ, सिर्योझेन्का.”
वह तो ख़ुद ही अपना दिल बहलाना चाहरहा था और ईमानदारी से उसने कोशिश की पहले बंदरिया से, फिर क्यूब्स से खेलने की, मगर कुछ नहीं हुआ : बिल्कुल दिल नहीं लग रहा था और सब कुछ बड़ा नीरस लग रहा था. किचन का दरवाज़ा धड़ाम् से खुला, पैरों की दन् दन् आवाज़ें सुनाई दीं और कोरोस्तेल्योव की ज़ोरदार आवाज़ सुनाई दी:
 “चलो, खाना खा लें. एक घंटे बाद गाड़ी आएगी.”
 “क्या ‘मस्क्विच’ कार मिली?” नास्त्या दादी ने पूछा.

कोरोस्तेल्योव ने जवाब दिया, “ओह, नहीं. नहीं दे रहे हैं. भाड़ में जाएँ. लॉरी में ही जाना पड़ेगा.”
सिर्योझा आदत के मुताबिक इस आवाज़ को सुनकर ख़ुश होने ही वाला था और उछलने वाला था, मगर तभी उसने सोचा : ‘जल्दी ही यह नहीं रहेगी’ और फिर से वह फ़र्श पर बेमतलब क्यूब्स घुमाता रहा. कोरोस्तेल्योव भीतर आया, बर्फ़ के कारण वह लाल हो गया था, ऊपर से उसने सिर्योझा की ओर देखा और अपराध की भावना से पूछा, “क्या हाल है, सिर्गेई?”

...जल्दी जल्दी खाना खाया. नास्त्या दादी चली गई. बिल्कुल अंधेरा हो गया. कोरोस्तेल्योव ने टेलिफोन किया और किसी से बिदा ली.

सिर्योझा उसके घुटनों से चिपक कर खड़ा था और बिल्कुल हिल डुल नहीं रहा था – और कोरोस्तेल्योव, बातें करते हुए अपनी लंबी लंबी उँगलियाँ उसके बालों में फेर रहा था...
ड्राईवर तिमोखिन आया और उसने पूछा,
 “तो, सब तैयार है? फ़ावड़ा दीजिए, बर्फ़ साफ़ करना होगा, वर्ना फाटक नहीं खुलेगा.”
लुक्यानिच उसके साथ फाटक खोलने गया. मम्मा ने ल्योन्या को पकड़ा और उसे कंबल में लपेटने लगी.
कोरोस्तेल्योव ने कहा,
 “जल्दी मत करो. उसे पसीना आ जाएगा. आराम से कर लेना.”

तिमोखिन और लुक्यानिच के साथ मिलकर वह बंधी हुई चीज़ें बाहर ले जाने लगा. दरवाज़े बार-बार खुल रहे थे, कमरों में ठंडक हो गई. सबके जूतों पर बर्फ़ थी, कोई भी पैर नहीं पोंछ रहा था, और पाशा बुआ भी कुछ कह नहीं रही थी – वह समझ रही थी कि अब पैर पोंछने से भी कोई फ़ायदा नहीं है! फ़र्श पर पानी के डबरे बन गए थे, वह गंदा और गीला हो गया था. बर्फ़ की, टाट की, तंबाकू की और तिमोखिन के भेड़ की खाल के कोट से कुत्ते की गंध आ रही थी. पाशा बुआ भाग भाग कर हिदायतें दे रही थी. मम्मा ल्योन्या को हाथों में लिए सिर्योझा के पास आई, एक हाथ में उसने सिर्योझा का सिर लिया और उसे अपने पास चिमटा लिया; वह दूर हो गया : वह उसे अपनी बाँहों में क्यों ले रही है, जबकि वह उससे दूर जाना चाहती है.

सारा सामान बाहर ले जाया गया : फ़र्नीचर, सूटकेस, खाने की थैलियाँ, और ल्योन्या के लंगोटों की बैग. कितना खाली खाली लग रहा है कमरों में! सिर्फ़ थोड़े बहुत कागज़ पड़े हैं. और दिखाई दे रहा है कि घर पुराना है, कि फ़र्श का रंग उड़ गया है और वह सिर्फ़ उसी जगह बचा है जहाँ अलमारी और छोटी मेज़ रखी थी.
 “पहन लो, बाहर आँगन में ठंड है,” लुक्यानिच ने पाशा बुआ को कोट देते हुए कहा. सिर्योझा एकदम चौंक गया और चीख़ते हुए उनकी ओर भागा, “मैं भी आँगन में जाऊँगा! मैं भी आँगन में जाऊँगा!”
 “अरे, ऐसे कैसे, ऐसे कैसे! तू भी चलेगा, तू भी!” पाशा बुआ ने उसे शांत करते हुए कहा और उसे गरम कपड़े पहनाए. तब तक मम्मा ने और कोरोस्तेल्योव ने भी कोट पहन लिए. कोरोस्तेल्योव ने सिर्योझा को एक हाथ से उठाया, कस कर उसे चूमा और फिर निर्णयातमक आवाज़ में कहा, “ फिर मिलेंगे, दोस्त. तंदुरुस्त रहना और याद रखना कि हमने किस बारे में फ़ैसला किया था.”
मम्मा सिर्योझा को चूमने लगी और रो पड़ी,
 “सिर्योझेन्का! मुझसे दस्विदानिया (फिर मिलेंगे) कहो!”
 “दस्विदानिया, दस्विदानिया!” उसने जल्दी जल्दी कहा, वह परेशानी से और इस जल्दबाज़ी से हाँफ रहा था, और उसने कोरोस्तेल्योव की ओर देखा. और उसे इनाम मिल गया – कोरोस्तेल्योव ने कहा, “तुम मेरे बहादुर बेटे हो, सिर्योझ्का!”
और लुक्यानिच और पाशा बुआ से मम्मा ने रोते हुए कहा, “आपका बहुत बहुत धन्यवाद, हर चीज़ के लिए.”
 “कोई बात नहीं,” दुखी होकर पाशा बुआ ने जवाब दिया.
 “सिर्योझ्का का ध्यान रखना.”
 “इस बारे में बिल्कुल बेफिक्र रहो,” पाशा बुआ ने जवाब दिया और और भी अधिक दुखी होकर अचानक चीखी:
 “हम कुछ देर बैठना भूल गए! बैठना ज़रूरी है!” (सफ़र पर जाने वाले और उन्हें बिदा करने वाले कुछ पल ख़ामोश बैठते हैं. यह सफ़र को सुखद बनाने की भावना से किया जाता है – अनु.)
 “मगर कहाँ?” लुक्यानिच ने आँखें पोंछते हुए पूछा.
” हे मेरे भगवान!” पाशा बुआ ने कहा. “चलो, हमारे कमरे में चलो!”
सब वहाँ गए, इधर उधर बैठे और न जाने क्यों, कुछ देर बैठे रहे – ख़ामोश, एक पल के लिए. पाशा बुआ सबसे पहले उठी और बोली,
 “भगवान आपकी रक्षा करे.”

वे बाहर ड्योढ़ी में आए. बर्फ गिर रही थी, सब कुछ सफ़ेद था. फाटक पूरा खुला था. शेड की दीवार पर मोमबत्ती वाली लालटेन लटक रही थी, वह रोशनी बिखेर रही थी., बर्फ़ के गुच्छे उसकी रोशनी में गिरते हुए दिखाई दे रहे थे. सामान से भरी लॉरी आंगन के बीचोंबीच खड़ी थी. तिमोखिन ने सामान पर तिरपाल डाल दिया, शूरिक उसकी मदद कर रहा था. चारों ओर लोग जमा हो गए थे : वास्का की माँ, लीदा और कुछ और भी लोग जो मम्मा और कोरोस्तेल्योव को बिदा करने आए थे. और वे सब – और अपने चारों ओर की हर चीज़ सिर्योझा को पराई लग रही थी, जैसे उसने उन्हें कभी देखा ही न हो. आवाज़ें भी अनजान लग रही थीं. पराया था यह आँगन...जैसे कि उसने इस शेड को कभी देखा ही नहीं था. जैसे इन बच्चों के साथ वह कभी खेला ही नहीं था. जैसे इस चाचा ने इस लॉरी में उसे कभी घुमाया ही नहीं था. जैसे कि उसका, जिसे फेंक दिया गया हो, अपना कुछ भी नहीं था और हो भी नहीं सकता था.           
 “जान पे आ रहा है गाड़ी चलाना,” अनजान आवाज़ में तिमोखिन ने कहा. “बहुत फ़िसलन है.”
कोरोस्तेल्योव ने मम्मा और ल्योन्या को कैबिन में बिठाया और शॉल से लपेट दिया : वह उन्हें सबसे ज़्यादा प्यार करता था, वह इस बात की फ़िक्र करता था कि वे ठीक ठाक रहें ..और वह ख़ुद लॉरी में ऊपर चढ़ गया और वहाँ खड़ा रहा, बड़ा, जैसे कोई स्मारक हो.
 “तुम तिरपाल के नीचे जाओ मीत्या! तिरपाल के नीचे!” पाशा बुआ चीखी, “वर्ना बर्फ़ की मार लगेगी!”
उसने उसकी बात नहीं सुनी, और बोला,
 “सिर्गेई, एक ओर को सरक जाओ. कहीं गाड़ी तुम पर न चढ़ जाए.”

लॉरी घरघराने लगी. तिमोखिन कैबिन में चढ़ गया. लॉरी और ज़ोर से घरघराने लगी, अपनी जगह से हिलने की कोशिश करते हुए...ये सरकी : पीछे गई, फिर आगे और फिर पीछे. अब वो चली जाएगी, फाटक बन्द कर देंगे, लालटेन बुझा देंगे, और सब कुछ ख़त्म हो जाएगा.
सिर्योझा एक ओर को, बर्फ के नीचे खड़ा था. वह पूरी ताक़त से अपने वचन को याद कर रहा था और सिर्फ कभी कभी लंबी, आशाहीन सिसकियाँ ले रहा था. और एक – इकलौता आँसू उसकी बरौनियों पर फिसला और लालटेन की रोशनी में चमकने लगा – एक कठिन आँसू, बच्चे का नहीं, बल्कि लड़के का, कड़वा, तीखा और स्वाभिमानी आँसू...
और अधिक वहाँ रुकने में असमर्थ, वह मुड़ा और घर की ओर चल पड़ा, दुख से झुका हुआ.
 “रुको!” बदहवासी से कोरोस्तेल्योव चिल्लाया और तिमोखिन के ऊपर की छत पर ज़ोर ज़ोर से खटखटाने लगा. “सिर्गेई! जल्दी! फ़ौरन! सामान इकट्ठा कर! तू चलेगा!”
और वह ज़मीन पर कूदा.
 “जल्दी! क्या क्या है? कपड़े वगैरह. खिलौने. एक दम में इकट्ठा कर. जल्दी!”
 “मीत्या, तू क्या कर रहा है! मीत्या, सोचो! मीत्या, तुम पागल हो गए हो!” पाशा बुआ और कैबिन से बाहर देखते हुए मम्मा कह रही थीं. उसने उत्तेजना और गुस्से से जवाब दिया:
 “बस हो गया. ये क्या हो रहा है, समझ रहे हैं? ये बच्चे को दो भागों में चीरना हो रहा है. आप चाहे जो करें, मैं नहीं कर सकता. बस.”
 “हे भगवान! वह वहाँ मर जाएगा!” पाशा बुआ चीखी.
 “चुप,” कोरोस्तेल्योव ने कहा. “मैं हर चीज़ के लिए ज़िम्मेदार हूँ, समझ में आया? कुछ नहीं मरेगा वो. बेवकूफ़ी है आपकी. चल, चल, सिर्योझा!”
और वह घर के अन्दर भागा.

पहले तो सिर्योझा अपनी जगह पर जम गया : उसे विश्वास नहीं हो रहा था, वह डर गया था.....दिल इतनी ज़ोर ज़ोर से धड़क रहा था कि उसकी आवाज़ सिर तक पहुँच रही थी...फिर सिर्योझा घर में भागा, सारे कमरों में दौड़ लगा ली, हाँफ़ते हुए, भागते भागते बंदरिया को उठाया – और अचानक निराश हो गया, यह तय करके कि शायद कोरोस्तेल्योव ने अपना इरादा बदल दिया हो, मम्मा और पाशा बुआ ने उसका मन बदल दिया हो – और वह फिर से उनके पास भागा. मगर कोरोस्तेल्योव उसके सामने से भाग कर आते हुए कह रहा था, “ चल, जल्दी कर!” उन्होंने मिलकर सिर्योझा की चीज़ें इकट्ठा कीं. पाशा बुआ और लुक्यानिच मदद कर रहे थे. लुक्यानिच ने सिर्योझा का पलंग फोल्ड करते हुए कहा, “मीत्या – ये तुमने बिल्कुल सही किया! शाबाश!”

और सिर्योझा अपनी दौलत में से जो भी हाथ लगता, उत्तेजना से उठाकर डिब्बे में डाल लेता, जो उसे पाशा बुआ ने दिया था. जल्दी! जल्दी! वर्ना अचानक वे चले जाएँगे! वैसे भी यह सही सही जानना बड़ा मुश्किल है कि वे कब क्या करेंगे...दिल तो गले तक आकर धड़क रहा था, साँस लेने और सुनने में भी तकलीफ़ हो रही थी.
 “जल्दी! जल्दी!” वह चिल्लाया, जब पाशा बुआ उसे गरम कपड़ों में लपेट रही थी. और, उसके हाथों से छूटकर वह आँखों से कोरोस्तेल्योव को ढूँढ़ रहा था. मगर लॉरी अपनी जगह पर ही थी, और कोरोस्तेल्योव अभी बैठा भी नहीं था और सिर्योझा को सबसे बिदा लेने को कह रहा था.
और अब, उसने सिर्योझा को उठाया और कैबिन में ठूँस दिया, मम्मा के पास और ल्योन्या के पास, मम्मा की शॉल के नीचे. लॉरी चल पड़ी, और आख़िरकार अब सुकून से बैठा जा सकता था.

कैबिन में भीड़ हो गई थी : एक, दो, तीन – चार आदमी, ओहो! भेड़ के कोट की तेज़ बू आ रही है. तिमोखिन सिगरेट पी रहा है. सिर्योझा खाँस रहा है. वह तिमोखिन और मम्मा के बीच में दबा हुआ बैठा था, कैप उसकी एक आँख पर खिसक गई थी, स्कार्फ़ गला दबा रहा है, और कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा है, छोटी सी खिड़की को छोड़कर, जिसके बाहर बर्फ़ गिर रही है, हेडलाईट की रोशनी में चमकती बर्फ़. बहुत मुश्किल हो रही है, मगर हमें इसकी परवाह नहीं है : हम जा रहे हैं. सब एक साथ जा रहे हैं, हमारी गाड़ी में, हमारा तिमोखिन हमें ले जा रहा है, और बाहर से, हमारे ऊपर कोरोस्तेल्योव जा रहा है, वह हमें प्यार करता है, वह हमारे लिए ज़िम्मेदार है, उस पर बर्फ़ की मार पड़ रही है, मगर उसने हमें कैबिन में बिठाया है, वह हम सब को खल्मागोरी ले जा रहा है. हे भगवान! हम खल्मागोरी जा रहे हैं. कितनी ख़ुशी की बात है! वहाँ क्या है – यह तो पता नहीं, मगर, शायद बड़ा ख़ूबसूरत ही होगा, क्योंकि हम वहाँ जा रहे हैं! तिमोखिन के हॉर्न की ज़ोरदार आवाज़ आ रही है, और चमकती हुई बर्फ़ खिड़की से सीधे सिर्योझा की ओर आ रही है...

                                              ***

Seryozha - 16

अध्याय 16

प्रस्थान से पूर्व की रात

 कुछ अनजान आदमी आए, डाईनिंग हॉल और मम्मा के कमरे का फ़र्नीचर हटाया और उसे टाट में बांध दिया. मम्मा ने परदे और लैम्प के कवर हटाए, और दीवारों से तस्वीरें निकालीं. और कमरे में सब कुछ बड़ा बिखरा बिखरा, बेतरतीब सा लग रहा था : फ़र्श पर रस्सियों के टुकड़े बिखरे पड़े थे, रंग उड़े हुए वॉल पेपर पर काली चौखटें – वहाँ, जहाँ तस्वीरें लटक रही थीं. इस बेतरतीबी के बीच पाशा बुआ का कमरा और किचन ही द्वीपों जैसे लग रहे थे. नंगे बिजली के बल्ब नंगी दीवारों, नंगी खिड़कियों और भूरे टाट पर चमक रहे थे. एक दूसरे पर रखी कुर्सियों का ढेर बन गया था, जो छत की ओर अपने खुरचे हुए पैर किए थीं.

कोई और समय होता तो वहाँ लुका-छिपी का खेल खेला जा सकता था. मगर अब, इस समय...
वे आदमी रात को देर से गए. सब लोग, थके हुए सोने लगे. और ल्योन्या भी सो गया, शाम को चीख़ा करता था उतना चीख कर. लुक्यानिच और पाशा बुआ बिस्तर में देर तक फुसफुसाते रहे और उनकी नाक सूँ-सूँ करती रही, आख़िर में वे भी ख़ामोश हो गए, और लुक्यानिच के खर्राटों की आवाज़ और पाशा बुआ की नाक से निकलती पतली सीटी सुनाई देने लगी.

कोरोस्तेल्योव अकेला ही टाट से बंधी कुर्सी पर मेज़ के पास नंगे लैम्प के नीचे बैठा था और लिख रहा था. अचानक उसे अपनी पीठ के नीचे गहरी साँस की आवाज़ आई. उसने मुड़ कर देखा – उसके पीछे सिर्योझा खड़ा था लंबी कमीज़ पहने, नंगे पैर और बंधे हुए गले से.
 “तू क्या कर रहा है यहाँ?” फुसफुसाहट से कोरोस्तेल्योव ने पूछा और उठ कर खड़ा हो गया.
 “कोरोस्तेल्योव,” सिर्योझा ने कहा, “मेरे प्यारे, मेरे दुलारे, मैं तुमसे विनती करता हूँ, ओह, प्लीज़, मुझे भी ले चलो!”
और वह दुख से सिसकियाँ लेने लगा, अपने आप को रोकने की कोशिश करते हुए, जिससे सोए हुए लोग उठ न जाएँ.
 “तू, मेरे दोस्त, क्या कर रहा है!” कोरोस्तेल्योव ने उसे हाथों में उठाते हुए कहा. “तुमसे कहा है न – नंगे पैर घूमना मना है, फ़र्श ठंडा है...तुम्हें तो मालूम है, है ना?...हम तो हर चीज़ के बारे में तय कर चुके हैं...”
 “मुझे खल्मागोरी जाना है,” सिर्योझा बिसूरने लगा.
 “देखो ज़रा, पैर तो पूरे जम गए हैं,” कोरोस्तेल्योव ने कहा. सिर्योझा की कमीज़ के किनारे से उसने उसके पैर ढाँक दिए; उसके दुबले-पतले शरीर को, जो सिसकियों के कारण थरथरा रहा था, अपने सीने से चिपटा लिया. “क्या कर सकते हो, समझ रहे हो, अगर ये ऐसे ही चलता रहा तो. अगर तुम हमेशा बीमार पड़ते रहे...”
 “मैं अब और बीमार नहीं पडूँगा!”
“और जैसे ही तुम अच्छे हो जाओगे – मैं फ़ौरन तुम्हें लेने के लिए आ जाऊँगा.”
 “तुम झूठ तो नहीं बोल रहे हो?” दुखी होकर सिर्योझा ने पूछा और उसकी गर्दन में बाँहें डाल दीं.
 “मैंने, दोस्त, आज तक तुमसे कभी झूठ नहीं बोला.”
 ‘सच है, झूठ नहीं बोला,’ सिर्योझा ने सोचा, ‘मगर कभी कभी वह भी झूठ बोलता है, वे सभी कभी कभी झूठ बोलते हैं...और, अगर, अचानक, वह मुझसे झूठ बोल रहा हो तो?’
वह इस मज़बूत मर्दाना गर्दन को पकड़े रहा, जो ठोढ़ी के नीचे चुभ रही थी, जैसे किसी आख़िरी सहारे को छोड़ना नहीं चाह रहा हो. इस आदमी पर उसकी सारी आशाएँ टिकी थीं, और वही उसका रक्षक था, उसका प्यार था. कोरोस्तेल्योव उसे लिए-लिए डाईनिंग रूम में घूम रहा था और फुसफुसा रहा था – रात की ये पूरी बातचीत फुसफुसाहट में ही हो रही थी:
 “...आऊँगा, फिर हम तुम रेल में जाएँगे...रेलगाड़ी तेज़ चलती है. डिब्बे लोगों से खचाखच भरे होते हैं...पता भी नहीं चलेगा कि कब मम्मा के पास पहुँच गए हैं...इंजिन सीटी बजाता है...
 ‘बस, सिर्फ़ उसके पास कभी समय ही नहीं होगा मेरे लिए आने का,’ सिर्योझा दुख से सोच रहा था. ‘और मम्मा के पास भी समय नहीं होगा. हर रोज़ उनके पास अलग अलग तरह के लोग आते रहेंगे और टेलिफ़ोन करते रहेंगे, और हमेशा वे या तो काम पर जाते रहेंगे, य परीक्षा देते रहेंगे, या ल्योन्या को संभालते रहेंगे, और मैं यहाँ इंतज़ार करता रहूँगा, इंतज़ार करता रहूँगा, और ये इंतज़ार कभी ख़त्म ही नहीं होगा...’
 “...वहाँ, जहाँ हम रहेंगे, सचमुच का जंगल है, अपने यहाँ की बगिया जैसा नहीं...कुकुरमुत्ते, बैरीज़, ...”
 “भेड़िए भी हैं?”
 “वो मैं अभी नहीं बता पाऊँगा. भेड़ियों के बारे में मैं ख़ास तौर से पता करूंगा और तुम्हें ख़त में लिखूँगा...और नदी है, हम तुम तैरने के लिए जाएँगे...मैं तुम्हें पेट के बल खिसकते हुए तैरना सिखाऊँगा...”
 ‘और कौन कह सकता है,’ आशा की एक नई उमंग से सिर्योझा ने सोचा, शक करते करते वह थक गया था. ‘हो सकता है, यह सब सचमुच में होगा.’
 “हम बन्सियाँ बनाएँगे, मछलियाँ पकडेंगे...देखो! बर्फ़ पड़ने लगी!”
वह सिर्योझा को खिड़की के पास ले गया. खिड़की के पार बड़े बड़े सफ़ेद फ़ाहे उड़ रहे थे, एक पल में चपटे होकर खिड़की की काँच से चिपक रहे थे. सिर्योझा उनकी ओर देखने लगा. वह पूरी तरह थक गया था, अपना गरम गीला गाल कोरोस्तेल्योव के चेहरे से चिपकाए वह शांत हो गया था.
 “आ गईं सर्दियाँ! फिर से ख़ूब घूमोगे, स्लेज पर फिसलोगे, समय तो बिना कुछ महसूस किए उड़ जाएगा...”
 “मालूम है,” सिर्योझा ने ग़मगीन परेशानी से कहा. “मेरी स्लेज की डोरी बहुत बुरी है, तुम नई डोरी बांध दो.”
 “ठीक है. ज़रूर बांध दूँगा. मगर तुम, दोस्त, मुझसे वादा करो : अब कभी नहीं रोओगे, ठीक है? तुम्हें भी नुक्सान होता है, और मम्मा भी परेशान हो जाती है, और वैसे भी ये मर्दों का काम नहीं है. मुझे ये अच्छा नहीं लगता...वादा करो कि कभी नहीं रोओगे.”
 “हूँ,” सिर्योझा ने कहा.
 “वादा करते हो? पक्का वादा?”
 “हूँ, हूँ...”
 “तो, ठीक है फिर. देखो, मुझे तुम्हारे, मर्द के, वादे पर पूरा भरोसा है.”
वह थके हुए, बोझिल हो चुके सिर्योझा को पाशा बुआ के कमरे में ले गया, उसे पलंग पर लिटाया और कंबल से ढाँक दिया. सिर्योझा ने एक लंबी, हाँफ़ती हुई साँस छोड़ी और फ़ौरन सो गया. कोरोस्तेल्योव कुछ देर खड़ा रहा, उसकी ओर देखता रहा. डाईनिंग रूम से आती हुई रोशनी में सिर्योझा का चेहरा छोटा सा, पीला नज़र आ रहा था – कोरोस्तेल्योव मुड़ा और पंजों के बल बाहर निकल गया.


गुरुवार, 6 नवंबर 2014

Seryozha - 15

अध्याय 15

खल्मागोरी


खल्मागोरी. मम्मा से कोरोस्तेल्योव की बातचीत में यह शब्द सिर्योझा अक्सर सुनता है.
 “ तुमने खल्मागोरी में ख़त लिखा?”
 “शायद खल्मागोरी में इतना व्यस्त नहीं रहूँगा, तब मैं राजनीतिक-अर्थशास्त्र की परीक्षा पास कर लूँगा.”
 “मुझे खल्मागोरी से जवाब आया है. लड़कियों के स्कूल में नौकरी दे रहे हैं.”
 “कर्मचारी विभाग से फोन आया था. खल्मागोरी के बारे में अंतिम निर्णय ले लिया गया है.”
 “इसे कहाँ खल्मागोरी घसीट कर ले जाएँगे. इसे तो दीमक खा गई है.” (अलमारी के बारे में.)
बस, सिर्फ खल्मागोरी, खल्मागोरी.
खल्मागोरी. ये कोई ऊँची चीज़ है. टीले और पहाड़, जैसा तस्वीरों में होता है. लोग एक पहाड़ से दूसरे पहाड़ पर चढ़ रहे हैं. लड़कियों का स्कूल पहाड़ पर है. बच्चे स्लेज में पहाड़ों से फिसल रहे हैं.
सिर्योझा लाल पेन्सिल से यह सब कागज़ पर बनाता है और इस मौके पर दिमाग में आई एक धुन पर हौले-हौले गाता है:
 “खल्मागोरी, खल्मागोरी”
जब अलमारी के बारे में बात हो रही है, तो ज़ाहिर है कि हम वहाँ जा रहे हैं.
बहुत बढ़िया. इससे अच्छी तो और किसी बात की कल्पना ही नहीं की जा सकती. झेन्का चला गया. वास्का चला गया, और हम भी जा रहे हैं. इससे हमारा महत्व ख़ूब बढ़ जाता है, कि हम भी कहीं जा रहे हैं, बस एक ही जगह पर नहीं बैठे हैं.
 “क्या खल्मागोरी दूर है?” सिर्योझा ने पाशा बुआ से पूछा.
 “दूर है,” पाशा बुआ ने जवाब दिया और आह भर कर बोली, “बहुत दूर है.”
 “क्या हम वहाँ जाएँगे?”
 “ओह, मुझे मालूम नहीं हैं, सिर्योझेन्का, तुम्हारी बातें.”
 “वहाँ क्या रेल से जाते हैं?”
 “रेल से.”
 “क्या हम खल्मागोरी जा रहे हैं?” सिर्योझा मम्मा और कोरोस्तेल्योव से पूछता है. उन्हें ख़ुद ही उसे इस बारे में बताना चाहिए था, मगर बताना भूल गए.
वे एक दूसरे की ओर देखते हैं, और फिर दूसरी ओर नज़र फेर लेते हैं, सिर्योझा निरर्थक कोशिश करता है उनकी आँखों में देखने की.
 “हम जा रहे हैं? हम सचमुच वहाँ जा रहे हैं?” वह घबरा जाता है: वे जवाब क्यों नहीं देते?
मम्मा सावधानी से कहती है:
 “पापा का वहाँ तबादला कर दिया गया है.”
 “और हम भी उनके साथ जाएँगे?”
वह सीधे सीधे पूछता है और उसे सीधा सीधा जवाब चाहिए. मगर मम्मा, हमेशा की तरह, पहले ढेर सारी इधर उधर की बातें कहती है:
 “उसे कैसे अकेले छोड़ सकते हैं. उसे अकेले तो अच्छा नहीं लगेगा: काम से घर लौटेगा, और घर में कोई नहीं...घर साफ़ सुथरा नहीं है...खाना खिलाने वाला कोई नहीं...बातें करने के लिए कोई नहीं...बेचारे    
पापा का मन दुखी – ख़ूब दुखी हो जाएगा...”
और इसके बाद वह कहती है:
 “मैं उसके साथ जाऊँगी.”
 “और मैं?”
कोरोस्तेल्योव छत की ओर क्यों देख रहा है? मम्मा फिर से क्यों चुप हो गई और सिर्योझा को क्यों सहला रही है?
 “और मैं!!” सिर्योझा भय से पैर पटकते हुए दुहराता है.
 “पहले तो, पैर मत पटको,” मम्मा कहती है और उसे सहलाना बन्द करती है. “ये और कहाँ से सीख लिया है – पैर पटकना?! मैं दुबारा ये न देखूँ! और दूसरी बात – आओ इस बारे में सोचते हैं: तुम अभी कैसे जा सकते हो? अभी अभी तुम बीमारी से उठे हो. तुम पूरी तरह ठीक नहीं हुए हो. ज़रा सा कुछ होता है – बुख़ार आ जाता है. हमें भी अभी पता नहीं है कि वहाँ कैसे इंतज़ाम करेंगे. और वहाँ की आबोहवा भी तुम्हारे लिए ठीक नहीं है. तुम वहाँ बीमार ही पड़ते रहोगे, और कभी भी अच्छे नहीं हो पाओगे. और मैं तुम्हें, बीमार बच्चे को किसके सहारे छोडूँगी? डॉक्टर ने कहा है कि अभी तुम्हें वहाँ नहीं ले जाना चाहिए.”
इससे काफ़ी पहले कि वह अपनी बात पूरी करे, वह आँसू बहाते हुए सिसकियाँ लेकर रोने लगा. उसे नहीं ले जा रहे हैं! ख़ुद चले जा रहे हैं, उसके बगैर! सिसकियाँ लेते हुए उसने मुश्किल से सुना कि वह आगे क्या कह रही थी:
 “पाशा बुआ और लुक्यानिच तुम्हारे साथ रहेंगे. तुम उनके साथ रहोगे, जैसे हमेशा रहते आए हो.”
मगर वह हमेशा की तरह नहीं रहना चाहता! उसे मम्मा और कोरोस्तेल्योव के साथ रहना है!
 “मुझे खल्मागोरी जाना है!” वह चीख़ा.
 “ओह, मेरे बच्चे, ओह, चुप हो जा!” मम्मा ने कहा. “तुझे इतना क्या है उस खल्मागोरी का? वहाँ कोई ख़ास बात नहीं है...”
 “झूठ!”
 “तुम मम्मा से इस तरह क्यों बात कर रहे हो? मम्मा हमेशा सच बोलती है...और फिर तुम कोई हमेशा के लिए तो नहीं ना रहोगे यहाँ, बुद्धू है मेरा बच्चा, ओह, बस भी करो...सर्दियों में यहाँ रहोगे, अच्छे हो जाओगे और फिर बसंत में या, हो सकता है, गर्मियों में पापा तुझे लेने के लिए आएँगे, या मैं आऊँगी, और तुझे ले जाएँगे – जैसे ही ठीक हो जाओगे, फ़ौरन ले जाएँगे – और फिर से हम सब एक साथ रहेंगे. सोचो, क्या हम ख़ूब दिनों तक तुम्हें छोड़ सकते हैं?”
हाँ, और अगर वह गर्मियों तक अच्छा नहीं हुआ तो? हाँ, क्या ये आसान बात है – सर्दियाँ यहाँ बिताना? सर्दियाँ – इतनी लंबी, इतनी अंतहीन...और इस बात को कैसे बर्दाश्त करे कि वे जा रहे हैं, और वह – नहीं? उसके बगैर रहेंगे, दूर, और उन्हें कोई फ़रक नहीं पड़ता, नहीं पड़ता! और रेल में जाएँगे, और वह एक भी बार रेल से नहीं गया है – और उसे नहीं ले जा रहे हैं! सब कुछ एक ही साथ महसूस हो रहा था – भयानक अपमान और दुख. मगर वह अपना दुख सिर्फ सीधे साधे शब्दों में ही व्यक्त कर सकता था:
 “मुझे खल्मागोरी जाना है! मुझे खल्मागोरी जाना है!”
 “मीत्या, थोड़ा पानी दो, प्लीज़,” मम्मा ने कहा. “थोड़ा पानी पी, सिर्योझेन्का. ऐसी ज़िद कोई करता है, भला. तुम चाहे कितना ही चिल्लाओ, इससे कुछ होने वाला नहीं है. एक बार जब डॉक्टर ने बोल दिया कि नहीं, मतलब – नहीं. ओह, शांत हो जा, तू तो समझदार बच्चा है, शांत हो जा...सिर्योझेन्का, मैं तो पहले भी कितनी ही बार तुम्हें छोड़ कर गई  हूँ, जब मैं पढ़ती थी, तुम भूल गए? जाती थी और वापस आ जाती थी, है ना? और तुम मेरे बगैर मज़े से रहते थे. और, जब मैं तुम्हें छोड़कर जाती थी, तो कभी रोते भी नहीं थे, क्योंकि मेरे बिना भी तुम्हें अच्छा ही लगता था. याद करो. अभी तुम यह सब हंगामा क्यों कर रहे हो? क्या तुम, अपनी ही भलाई के लिए, कुछ दिनों तक हमारे बगैर नहीं रह सकते?”
कैसे समझाऊँ उसे? तब बात और थी. वह छोटा था और बेवकूफ़ था. वह जाया करती थी – उसकी आदत छूट जाती थी, और जब वह वापस लौट कर आती, फिर से उसकी आदत पड़ जाती. और तब वह अकेली जाती थी; मगर अब वह कोरोस्तेल्योव को उससे दूर ले जा रही है...एक नया ख़याल, नई पीड़ा: ‘ल्योन्या को, शायद, वह ले जाएगी.’ यक़ीन करने के लिए, अपने सूजे हुए होठों को दबाते हुए उसने पूछा,
 “और ल्योन्या?...”
 “अरे, वह तो बिल्कुल छोटा है!” उलाहने से मम्मा ने कहा और वह लाल हो गई. “वह मेरे बिना नहीं रह सकता, समझते हो? वह मेरे बिना मर जाएगा! और वह तन्दुरुस्त है, उसे बुख़ार नहीं आता और उसके गले की गाँठें सूजती नहीं हैं.”
सिर्योझा ने सिर झुका लिया और फिर से रोने लगा. मगर अब, ख़ामोशी से, बिना किसी आशा के.
वह किसी तरह समझौता कर लेता, अगर ल्योन्या भी रुक जाता. मगर वे तो सिर्फ़ उस अकेले को फेंक कर जा रहे हैं. सिर्फ वह अकेला ही उन्हें नहीं चाहिए! 
  ‘किस्मत के भरोसे,’ उसने कहानी के लकड़ी वाले लड़के के बारे में कटुता से सोचा.
और मम्मा ने उसे जो चोट पहुँचाई थी – ऐसी चोट जो ज़िन्द्गी भर उसके दिल पर अपना निशान छोड़ेगी – उसमें अपने दोषी होने की भावना भी मिल गई : वह दोषी है, दोषी! बेशक, वह ल्योन्या से बुरा है, उसकी गाँठें जो फूल जाती हैं, इसीलिए ल्योन्या को ले जा रहे हैं और उसे नहीं ले जाएँगे!
 “आ S S ह !” कोरोस्तेल्योव ने आह भरी और कमरे से निकल गया...मगर फ़ौरन लौट आया और बोला, “सिर्योझ्का, चलो घूमने चलते हैं. बगिया में.”
 “ऐसी नम हवा में! वह फिर पड़ जाएगा!” मम्मा ने कहा.
कोरोस्तेल्योव ने हाथ झटके.
 “वह वैसे भी लेटा रहता है. चलो, सेर्गेई.”
सिर्योझा सिसकियाँ लेते हुए उसके पीछे चल पड़ा. कोरोस्तेल्योव ने ख़ुद उसे गरम कपड़े पहनाए. सिर्फ स्कार्फ़ बांधने के लिए मम्मा से कहा. और उसका हाथ पकड़ कर वे बगिया में पहुँचे.
 “एक शब्द होता है : ‘ज़रूरी’, कोरोस्तेल्योव कह रहा था.  “तुम क्या सोचते हो, मैं खल्मागोरी जाना चाहता हूँ? या मम्मा जाना चाहती है? इसका एकदम उल्टा है. हमारी कितनी सारी योजनाएँ थीं, सब गड्ड मड्ड हो गईं. मगर ज़रूरी है – इसलिए जा रहे हैं. और मेरी ज़िन्दगी में तो ऐसा कितनी बार हुआ है.”
 “क्यों?” सिर्योझा ने पूछा.
 “ऐसी ही है, दोस्त, ज़िन्दगी.”
कोरोस्तेल्योव बड़ी गंभीरता से और दुख से बोल रहा था, और इस बात से थोड़ी सी राहत मिली कि उसे भी दुख हो रहा है.
 “वहाँ जाएँगे मम्मा के साथ. जैसे ही पहुँचेंगे, नया काम शुरू करना पड़ेगा. और फिर ये ल्योन्या है. उसे फ़ौरन शिशु-गृह में भेजना होगा. और अगर, अचानक, शिशु-गृह दूर हुआ तो? एक नर्स ढूँढ़नी पड़ेगी. ये भी बड़ा झंझट भरा काम है. और मुझे परीक्षा देनी होगी, पास होना होगा, चाहे तुम्हारी जान ही क्यों न निकल जाए. चाहे कहीं भी जाओ, हर जगह ‘ज़रूरी है’ . और तुझे तो सिर्फ एक ही बात ‘ज़रूरी है’ : कुछ दिनों के लिए यहाँ इंतज़ार कर लो. तुम्हें हमारे साथ मुसीबतें उठाने को मजबूर क्यों किया जाए? बेकार ही में और ज़्यादा बीमार पड़ जाओगे....”
मजबूर करने की ज़रूरत नहीं है. वह राज़ी है, तैयार है, वह तड़प रहा है उनके साथ मुसीबतें उठाने के लिए. जो उनके साथ हो रहा है, वही उसके साथ भी हो जाए. इस आवाज़ की तमाम आश्वासात्मकता के बावजूद सिर्योझा इस ख़याल को अपने दिल से न निकाल सका कि वे उसे इसलिए नहीं छोड़कर जा रहे हैं कि वह वहाँ बीमार पड़ जाएगा, बल्कि इसलिए कि वह, बीमार, उन पर बोझ बन जाएगा. मगर उसका दिल अब यह भी समझने लगा था कि कोई भी प्यारी चीज़ कभी बोझ नहीं होती. और उनके प्यार के प्रति शक इस दिल को पैनेपन से चीरता जा रहा था, जो अब काफ़ी कुछ समझने लगा था.
वे बगिया में आए. वहाँ सूना सूना और उदास था. पत्ते पूरे गिर चुके थे, नंगे पेड़ों पर घोंसले काले हो रहे थे, नीचे से देखने पर वे काले ऊन के उलझे हुए गोले जैसे नज़र आ रहे थे. भूरी पड़ गई पत्तियों की गीली सतह पर बूटों से मच् मच् करते सिर्योझा पेड़ों के नीचे से कोरोस्तेल्योव का हाथ पकड़े चल रहा था और सोच रहा था. अचानक उसने बगैर किसी भावना के कहा, “सब एक ही है.”
 “क्या सब एक ही है?” कोरोस्तेल्योव ने उसके ओर झुकते हुए पूछा.
सिर्योझा ने जवाब नहीं दिया.
 “ सही में, दोस्त, सिर्फ़ गर्मियों तक!” कुछ देर की ख़ामोशी के बाद परेशानी से कोरोस्तेल्योव ने कहा.
सिर्योझा यह कहना चाहता था: सोचो या न सोचो, रोओ या न रोओ – इसका कोई मतलब नहीं है : तुम, बड़े लोग, सब कुछ कर सकते हो; तुम मना कर सकते हो, तुम इजाज़त दे सकते हो, गिफ्ट दे सकते हो और सज़ा दे सकते हो; और अगर तुमने कह दिया कि मुझे यहाँ रहना पड़ेगा, तो तुम मुझे कैसे भी छोड़ ही दोगे, चाहे मैं कुछ भी क्यों न करूँ. ऐसा जवाब वह देता, अगर दे सकता तो. बड़े लोगों की महान, असीमित सत्ता के सामने असहायता का एहसास उसके दिल को घेरने लगा....
... इस दिन से वह एकदम ख़ामोश हो गया. क़रीब क़रीब पूछता ही नहीं था: “ऐसा क्यों?” अक्सर अकेला रहता, पाशा बुआ के दीवान पर पैर ऊपर करके बैठ जाता और कुछ कुछ फुसफुसाता रहता. पहले ही की तरह उसे कभी कभार ही घूमने के लिए बाहर छोड़ते : शरद ऋतु लंबी खिंच रही थी – नम, चिपचिपी – और शरद ऋतु के साथ बीमारी भी खिंचती गई.

कोरोस्तेल्योव अक्सर उनके पास नहीं होता था. सुबह से वह अपना काम दूसरों को देने के लिए निकल जाता (जैसे कि अभी उसने कहा: ‘मैं चला अवेर्कियेव को काम सौंपने’) मगर वह सिर्योझा को भूला नहीं था: एक बार, उठने के बाद, सिर्योझा को अपने पलंग के पास नए क्यूब्स मिले, दूसरी बार – कत्थई रंग की बंदरिया. सिर्योझा को बंदरिया बहुत अच्छी लगी. वह उसकी बेटी बन गई. वह बड़ी ख़ूबसूरत थी, उस राजकुमारी की तरह. वह उससे कहता, ‘तू, दोस्त’. वह खल्मागोरी जाता और उसे अपने साथ ले जाता. उससे फुसफुसाकर बातें करते हुए, उसके ठंडे प्लास्टिक के मुँह को चूमते हुए, वह उसे सुलाता.

Seryozha - 14

अध्याय 14


बेचैनी


फिर से बीमारी!  इस बार तो बिना किसी कारण के टॉन्सिल्स हो गए. फिर डॉक्टर ने कहा, “छोटी छोटी गिल्टियाँ,” और उसे सताने के नए तरीके ढूँढ़ निकाले – कॉडलिवर ऑईल और कम्प्रेस. और बुखार नापने के लिए भी कहा.
कम्प्रेस में क्या करते हैं : बदबूदार काला मरहम एक कपड़े के टुकड़े पर लगाते हैं और तुम्हारी गर्दन पर रखते हैं. ऊपर से एक कड़ा, चुभने वाला कागज़ रखते हैं. ऊपर से रूई. उसके ऊपर से बैण्डेज बाँधते हैं, बिल्कुल कानों तक. जिससे सिर ऐसा हो जाता है जैसे लकड़ी के बोर्ड पर ठुकी हुई कील : घुमा ही नहीं सकते. बस उसी तरह रहो.

ये तो भला हो उनका कि लेटे रहने की ज़बर्दस्ती नहीं करते. और जब सिर्योझा को बुखार नहीं होता, और बाहर बारिश नहीं हो रही होती, तो वह बाहर घूमने भी जा सकता है. मगर ऐसे संयोग कभी कभार ही होते हैं. क़रीब क़रीब हर रोज़ या तो बारिश होती है, या फिर बुखार रहता है.
रेडियो चलता रहता है; मगर उस पर जो कुछ भी बोला जा रहा है या बजाया जा रहा है, वह सब सिर्योझा के लिए दिलचस्प नहीं है.
और बड़े लोग तो बहुत आलसी हैं : जैसे ही कहानी पढ़ने के लिए या सुनाने के लिए कहो, वे माफ़ी मांग लेते हैं ये कहकर कि वे काम कर रहे हैं.
पाशा बुआ खाना पकाती रहती है; उसके हाथ, सचमुच में काम में लगे होते हैं, मगर मुँह तो खाली रहता है : एकाध कहानी ही सुना देती. या फिर मम्मा : जब वह स्कूल में होती है, या ल्योन्या के लंगोट बदल रही होती है, या कॉपियाँ जाँच रही होती है, तो बात और है; मगर जब वह आईने के सामने खड़ी रहती है और अपनी चोटियाँ कभी ऐसे तो कभी वैसे बनाती है, और मुस्कुराती भी रहती है – उस समय वह क्या काम कर रही होती है?
 “मुझे पढ़ कर सुनाओ,” सिर्योझा विनती करता है.
 “रुको, सिर्योझेन्का,” वह जवाब देती है. “मैं काम में हूँ.”
 “और तुमने उन्हें क्यों खोल दिया?” चोटियों के बारे में सिर्योझा पूछता है.
 “दूसरी तरह से बाल बनाना चाहती हूँ.”
 “क्यों?”
 “मुझे करना है.”
 “तुम्हें क्यों करना है?”
 “यूँ ही...”
 “और हँस क्यों रही हो तुम?”
 “यूँ ही...”
 “यूँ ही क्यों?”
 “ओह, सिर्योझेन्का, तू मेरा दिमाग चाट रहा है.”
सिर्योझा सोचने लगा : मैं उसका दिमाग कैसे चाट रहा हूँ? और कुछ देर सोचने के बाद कहता है:
 “फिर भी तुम मुझे थोड़ा सा पढ़ कर सुनाओ.”
 “शाम को आऊँगी,” मम्मा कहती है, “तब पढूँगी.”
मगर शाम को, लौटने के बाद, वह ल्योन्या को खिलाएगी, उसके हाथ-मुँह धुलाएगी, कोरोस्तेल्योव से बातें करेगी और अपनी कॉपियाँ जाँचेगी. और पढ़ने में फिर से टाल मटोल करेगी,
मगर देखो, पाशा बुआ ने अपना काम पूरा कर लिया है, और वह आराम करने बैठी है, अपने कमरे में दीवान पर. हाथ घुटनों पर रखे हैं, ख़ामोश बैठी है, घर में कोई भी नहीं है, तभी सिर्योझा उसे पकड़ लेता है.
 “अब तुम मुझे कहानी सुनाओगी,” रेडियो बन्द करके उसके पास बैठते हुए वह कहता है.
 “हे भगवान!” वह थकी हुई आवाज़ में कहती है, “कहानी सुनाऊँ तुझे. तुझे तो सारी की सारी मालूम हैं.”
 “तो क्या हुआ. मगर, फिर भी तुम सुनाओ.”
कितनी आलसी है!
 “तो, एक बार एक राजा और रानी रहते थे,” वह शुरू करती है, गहरी साँस लेकर. और उनकी एक बेटी थी. और तब एक ख़ूबसूरत दिन...”
 “वह सुन्दर थी?” सिर्योझा मांग करते हुए उसे बीच ही में टोकता है.
उसे मालूम था कि बेटी सुन्दर थी; और सभी को यह मालूम है; मगर पाशा बुआ छोड़ क्यों देती है? कहानियों में कुछ भी नहीं छोड़ना चाहिए.
 “सुन्दर थी, सुन्दर थी. इतनी सुन्दर, इतनी सुन्दर...एक, मतलब, ख़ूबसूरत दिन उसने सोचा कि शादी कर लूँ. कितने सारे लड़के शादी का प्रस्ताव लेकर आए...
कहानी अपने ढर्रे पर चलती रहती है. सिर्योझा ध्यान से सुनता है, अपनी बड़ी बड़ी, कठोर आँखों से शाम के धुँधलके में देखते हुए. उसे पहले से ही मालूम होता है कि अब कौन सा शब्द आएगा, मगर इससे कहानी बिगड़ तो नहीं ना जाती. उल्टे ज़्यादा अच्छी लगने लगती है.
शादी के लिए आए हुए लड़के, प्रस्ताव लेकर आना – इन शब्दों में उसे क्या समझ में आता है – वह कुछ बता नहीं सकता था; मगर वह सब कुछ समझता था – अपने हिसाब से. मिसाल के तौर पर ‘घोड़ा, जैसे ज़मीन में गड़ गया’ और फिर दौड़ने लगा – तो, इसका मतलब ये हुआ कि उसे बाहर निकाला गया.
धुँधलका गहराने लगता है. खिड़कियाँ नीली हो जाती हैं, और उनकी चौखट काली. दुनिया में कुछ भी सुनाई नहीं देता है, सिवाय पाशा बुआ की आवाज़ के, जो राजकुमारी से शादी के लिए आए हुए लड़कों के दुःसाहसी कारनामों के बारे में कह रही है. दाल्न्याया रास्ते के छोटे से घर में निपट ख़ामोशी छाई हुई है.

ख़ामोशी में सिर्योझा ‘बोर’ हो जाता है. कहानी जल्दी ख़तम हो जाती है : दूसरी कहानी सुनाने के लिए पाशा बुआ किसी भी क़ीमत पर तैयार नहीं होती, उसके गुस्से और उसकी विनती के बावजूद कराहते हुए और उबासियाँ लेते हुए वह किचन में चली जाती है; और वह अकेला रह जाता है. क्या किया जाए?

बीमारी के दौरान खिलौनों से बेज़ार हो गया था. ड्राईंग बनाने से भी उकता गया था. साईकिल तो कमरों में चला नहीं सकते – बहुत कम जगह है.
 ‘बोरियत’ ने सिर्योझा को बीमारी से भी ज़्यादा जकड़ रखा है, उसकी हलचल को सुस्त बना दिया है, ख़यालों से भटका दिया है. सब कुछ ‘बोरिंग’ है.

लुक्यानिच कुछ सामान ख़रीद कर लाया : भूरे रंग का डिब्बा, डोरी से बंधा हुआ. सिर्योझा बहुत उतावला हो गया और बेचैनी से इंतज़ार करने लगा कि लुक्यानिच उस डोरी को खोले. उसे काट देता, और बस! मगर लुक्यानिच बड़ी देर तक हाँफ़ते हुए उसकी कस कर बंधी हुई गाँठें खोलता है – डोरी की ज़रूरत पड़ सकती है, वह उसे साबुत की साबुत संभाल कर रखना चाहता है.

सिर्योझ आँखें फाड़ कर देख रहा है, पंजों के बल खड़े होकर...मगर भूरे डिब्बे से, जहाँ कोई बढ़िया चीज़ हो सकती थी, निकलते हैं एक जोडी काले कपड़े के जूते, रबर की पतली किनारी वाले.
सिर्योझा के पास भी जूते हैं, उसी तरह की लेस वाले, मगर वे कपड़े के नहीं, बल्कि सिर्फ रबर के हैं. वह उनसे नफ़रत करता है, अब इन जूतों की ओर देखने में उसे कोई दिलचस्पी नहीं है.
 “ये क्या है?” मायूस होकर, सुस्त-लापरवाही से वह पूछता है.
 “जूते,” लुक्यानिच जवाब देता है. “इन्हें कहते हैं ‘अलबिदा जवानी’” .
 “मगर क्यों?”
 “क्योंकि नौजवान ऐसे जूते नहीं पहनते.”
 “और क्या तुम बूढ़े हो?”
 “जब मैंने ऐसे जूते पहने हैं, तो इसका मतलब ये हुआ कि मैं बूढ़ा हूँ.”
लुक्यानिच पैर पटक कर देखता है और कहता है, “बढ़िया!”
और पाशा बुआ को दिखाने के लिए जाता है.

सिर्योझा किचन में कुर्सी पर चढ़ जाता है और बिजली की बत्ती जला देता है. एक्वेरियम में मछलियाँ तैर रही हैं, अपनी बेवकूफ़ों जैसी आँखें फ़ाड़े. सिर्योझा की परछाईं उन पर पड़ती है – वे तैर कर ऊपर की ओर आती हैं और खाने की उम्मीद में अपने मुँह खोलती हैं.
 ‘ हाँ, ये मज़ेदार बात है,’ सिर्योझा सोचता है, ‘क्या वे अपना ही तेल पियेंगी या नहीं?’
वह बोतल का ढक्कन निकालता है और एक्वेरियम में थोड़ा सा कॉडलिवर ऑइल डालता है. मछलियाँ पूँछ नीचे करके, मुँह खोले टँगी रहती हैं, मगर वे तेल नहीं पीतीं. सिर्योझा कुछ और तेल डालता है. मछलियाँ इधर-उधर भाग जाती हैं...
 ‘नहीं पीतीं,’ उदासीनता से सिर्योझा सोचता है.

 ‘बोरियत’, ‘बोरियत’ ! ये बोरियत उसे जंगलीपन और बेमतलब के कामों की ओर धकेलती है. वह चाकू लेता है और दरवाज़ों से उन जगहों का पेंट खुरच डालता है, जहाँ उसके पोपड़े पड़ गए थे. इसलिए नहीं कि उसे इससे ख़ुशी हो रही थी – मगर फिर भी कुछ काम तो था. ऊन का गोला लेता है, जिससे पाशा बुआ अपने लिए स्वेटर बुन रही है, और उसे पूरा खोल देता है – इसलिए कि उसे फिर से लपेट दे (जो उससे हो नहीं पाता). ऐसा करते हुए उसे हर बार ये महसूस होता है कि वह कोई अपराध कर रहा है, कि पाशा बुआ उसे डाँटेगी, और वह रोएगा – और वह डाँटती है, और वह भी रोता है, मगर कहीं दिल की गहराई में वह संतुष्ट है : थोड़ी डाँट-डपट हो गई, रोना-धोना हो गया – देखो, और समय भी बिना कुछ हुए नहीं बीता.

बहुत ख़ुशी होती है जब मम्मा आती है और ल्योन्या को लाती है. घर में जान आ जाती है : ल्योन्या चिल्लाता है, मम्मा उसे खिलाती है, उसके लंगोट बदलती है, ल्योन्या के हाथ-मुँह धुलाए जाते हैं. अब वह काफ़ी कुछ इन्सान जैसा लगता है, उसके मुक़ाबले, जब वह पैदा हुआ था. तब वह सिर्फ माँस का गोला ही था. अब वह मुट्ठी में झुनझुना पकड़ सकता है, मगर इससे ज़्यादा की उससे उम्मीद नहीं की जा सकती. वह पूरे दिन अपने शिशु-गृह में रहता है, अपनी कोई ज़िन्दगी जीता है, सिर्योझा से अलग.

कोरोस्तेल्योव देर से लौटता है. वह सिर्योझा से बात शुरू कर ही रहा होता है, या उसे किताब पढ़ कर सुनाने के लिए राज़ी हो ही रहा होता है, तो टेलिफ़ोन बजने लगता है, और मम्मा हर मिनट उनकी बातों में ख़लल डालती है. हमेशा उसे कुछ न कुछ कहना ही होता है; वह इंतज़ार नहीं कर सकती, लोगों के काम ख़त्म होने तक. रात को सोने से पहले ल्योन्या बड़ी देर तक चिल्लाता है. मम्मा कोरोस्तेल्योव को बुलाती है, उसे बस कोरोस्तेल्योव ही चाहिए होता है – वह ल्योन्या को उठाए-उठाए कमरे में घूमता है और शू—शू—करता है. मगर सिर्योझा का भी अब सोने का मन होता है और कोरोस्तेल्योव के साथ बातचीत अनिश्चित काल तक टल जाती है.

मगर कभी कभी ख़ूबसूरत शामें भी होती हैं – कम ही होती हैं – जब ल्योन्या जल्दी शांत हो जाता है, और मम्मा कॉपियाँ जाँचने बैठती है, तब कोरोस्तेल्योव सिर्योझा को बिस्तर पर लिटाता है और कहानी सुनाता है. पहले वह अच्छी तरह से नहीं सुनाता था, बल्कि उसे आता ही नहीं था; मगर सिर्योझा ने उसकी मदद की और उसे सिखाया, और अब कोरोस्तेल्योव काफ़ी अच्छी तरह से कहानी सुनाता है:
 “एक समय की बात है. एक राजा और रानी रहते थे. उनकी एक सुन्दर बेटी थी, राजकुमारी...”
और सिर्योझा सुनता है और ठीक करता है, जब तक कि वह सो नहीं जाता.

इन लंबे, उकताहट भरे दिनों में, जब वह कमज़ोर और चिड़चिड़ा हो गया था, कोरोस्तेल्योव का ताज़ा-तरीन, स्वस्थ्य चेहरा उसे और भी प्यारा लगने लगा, कोरोस्तेल्योव के मज़बूत हाथ, उसकी साहसभरी आवाज़...सिर्योझा सो जाता है, इस बात से प्रसन्न होते हुए कि हर चीज़ सिर्फ ल्योन्का और मम्मा के ही लिए नहीं है – कोरोस्तेल्योव का कुछ भाग तो उसके हिस्से में भी आता है...