शुक्रवार, 31 अक्टूबर 2014

Seryozha - 10

अध्याय 10

आसमान में और धरती पर हो रही घटनाएँ


गर्मियों में तारे नहीं दिखाई देते. सिर्योझा चाहे कभी भी उठे, कभी भी सोए – आँगन में हमेशा उजाला ही रहता है. अगर बादल और बारिश भी हो, तब भी उजाला ही रहता है, क्योंकि बादलों के पीछे होता है सूरज. साफ़ आसमान में कभी कभी सूरज के अलावा, एक पारदर्शी, बेरंग धब्बा देखा जा सकता है, जो काँच के टुकड़े जैसा लगता है. यह चाँद है, दिन का चांद, बेज़रूरत, वह लटका रहता है और सूरज की चमक में पिघलता रहता है, पिघलता रहता है और ग़ायब हो जाता है – पूरी तरह पिघल गया; नीले, विशाल आसमान में सिर्फ सूरज ही राज करता है.

सर्दियों में दिन छोटे होते हैं; अंधेरा जल्दी हो जाता है; रात के खाने से काफ़ी पहले दाल्न्याया रास्ते पर, उसके बर्फ से ढँके बगीचों और सफ़ेद छतों पर तारे नज़र आने लगते हैं. वे हज़ारों, या हो सकता है, लाखों भी हों. बड़े तारे होते हैं, छोटे भी होते हैं. और बहुत बहुत छोटे तारों की रेत दूध जैसे चमकदार धब्बों में मिली हुई. बड़े तारों से नीली, सफ़ेद, सुनहरी रोशनी निकलती है; सीरिउस तारे की किरणें तो बरौनियों जैसी होती हैं; आसमान के बीच में तारे – छोटे और बड़े, और तारों की रेत – सब कुछ बर्फीले-चमकते घने कोहरे में घुल जाता है, एक आश्चर्यजनक – टेढ़ामेढ़ा पट्टा बनाते हुए, जो सड़क पर एक पुल की तरह फैला होता है – इस पुल को कहते हैं : आकाश गंगा!

पहले सिर्योझा सितारों पर ध्यान नहीं देता था, उसे उनमें दिलचस्पी नहीं थी, क्योंकि वह नहीं जानता था कि उनके भी नाम होते हैं. मगर मम्मा ने उसे आकाश गंगा दिखाई. और सीरिउस भी. और बड़ा भालू. और लाल मंगल. हर तारे का एक नाम होता है, मम्मा ने कहा था, उनका भी जो रेत के कण से बड़े नहीं होते. मगर वे सिर्फ दूर से ही रेत के कणों जैसे दिखाई देते हैं, वे बहुत बड़े बड़े होते हैं, मम्मा ने कहा था. मंगल पर, हो सकता है कि लोग रहते हों.

सिर्योझा सारे नाम जानना चाहता था, मगर मम्मा को याद नहीं थे; वह जानती तो थी, मगर भूल गई थी. मगर उसने उसे चांद के पहाड़ दिखाए थे.

क़रीब क़रीब हर रोज़ बर्फ़ गिरती है. लोग रास्ते साफ़ करते हैं, उस पर पैर रखते हैं और गंदे निशान छोड़ देते हैं – मगर वह फिर से गिरती है और सब कुछ ऊँचे ऊँचे परों के तकियों से ढँक जाता है. फ़ेंसिंग के खंभों पर सफ़ेद टोपियाँ. टहनियों पर मोटी मोटी सफ़ेद बत्तख़ें. टहनियों के बीच बीच की जगह पर गोल गोल बर्फ़ के गोले.

सिर्योझा बर्फ़ पर खेलता है, वह घर बनाता है, लड़ाई लड़ाई खेलता है, स्लेज पर घूमता है. लकड़ियों के गोदाम के पीछे लाल-गुलाबी दिन ढलता है. शाम हो जाती है. स्लेज को रस्सी से खींचते हुए सिर्योझा घर लौटता है. कुछ देर ठहरता है, सिर पीछे को करता है और अचरज से परिचित तारों की ओर देखता है. बड़ा भालू आसमान के क़रीब क़रीब बीच में उतरा है, बेशर्मी से अपनी पूँछ फैलाए हुए. मंगल अपनी लाल आँख मिचका रहा है.

 ‘अगर ये मंगल इतना तंदुरुस्त है कि हो सकता है, कि उस पर लोग रहते हों,’ सिर्योझा के दिल में ख़याल आता है, ‘तो यह भी काफ़ी हद तक संभव है कि इस समय वहाँ भी ऐसा ही बच्चा खड़ा हो, ऐसी ही स्लेज लिए, ये भी काफ़ी संभव है कि उसका नाम भी सिर्योझा हो...’ यह ख़याल उसे चौंका देता है, किसी से यह ख़याल बांटने का जी करता है. मगर हरेक के साथ तो बांट नहीं सकते – नहीं समझेंगे; वे अक्सर नहीं समझते हैं; मज़ाक उड़ाएँगे, और ऐसे मौकों पर सिर्योझा को ये मज़ाक भारी पड़ते हैं और अपमानजनक लगते हैं. वह कोरोस्तेल्योव से कहता है, यह देखकर कि आसपास कोई नहीं है – कोरोस्तेल्योव मज़ाक नहीं उड़ाता. इस बार भी वह नहीं हँसा, मगर, कुछ देर सोचकर बोला : “हुँ, संभव तो है.”

और इसके बाद उसने न जाने क्यों सिर्योझा के कंधे पकड़ कर उसकी आँखों में ध्यान से, और कुछ भय से भी देखा.

 .... शाम को जी भर कर खेलने के बाद, ठंड से कुड़कुड़ाते हुए घर वापस लौटते हो, और वहाँ भट्टियाँ गरमाई हुई होती हैं, गर्मी से धधकती हुई. नाक से सूँ, सूँ करते हुए गरमाते हो, तब तक पाशा बुआ पास पड़ी बेंच पर तुम्हारी पतलून और फ़ेल्ट बूट सुखाने के लिए फ़ैला देती है. फिर सबके साथ किचन में मेज़ पर बैठते हो, गरम गरम दूध पीते हो, उनकी बातचीत सुनते हो और इस बारे में सोचते हो कि आज बनाए गए बर्फ़ के किले का घेरा डालने के लिए कल किस तरह अपने साथियों के साथ जाना है...बड़ी अच्छी चीज़ है – सर्दियाँ.

बढ़िया चीज़ है – सर्दियाँ, मगर वे बड़ी लंबी होती हैं: भारी भरकम कपड़ों से बेज़ार हो जाते हो और बहुत ठंडी हवाएँ, घर से शॉर्ट्स और चप्पल पहन कर बाहर भागने को जी चाहता है, नदी में डुबकियाँ लगाने को, घास पर लोटने को, मछलियाँ पकड़ने को – ये बात और है कि तुम्हारी बन्सी में एक भी नहीं अटकती, कोई परवाह नहीं, मगर दोस्तों के साथ इकट्ठा होना कितना अच्छा लगता है, ज़मीन खोद खोद कर केंचुओं को निकालना, बन्सी लेकर बैठना, चिल्लाना, “शूरिक, मेरा ख़याल है कि तेरी बन्सी में लग रहा है!”

छिः छिः, फिर से बर्फ़ीला तूफ़ान और कल तो बर्फ़ पिघलने लगी थी! किस क़दर बेज़ार कर दिया है इन घिनौनी सर्दियों ने!

....खिड़कियों पर टेढ़े मेढ़े आँसू बहते हैं, रास्ते पर बर्फ़ की जगह गाढ़ा काला कीचड़ पैरों के निशानों समेत: बसंत! नदी पर जमी बर्फ़ अपनी जगह से चल पड़ी. सिर्योझा बच्चों के साथ यह देखने के लिए गया कि हिमखण्ड कैसे चलता है. पहले तो बड़े बड़े गन्दे टुकड़े बहने लगे, फिर कोई एक भूरी भूरी, बर्फ़ की गाढ़ी गाढ़ी, खीर जैसी, चीज़ बहने लगी. फिर नदी दोनों ओर से फ़ैलने लगी. उस किनारे पर खड़े सरकण्डे के पेड़ कमर तक पानी में डूब गए. सब कुछ नीला नीला था, पानी और आकाश; भूरे और सफ़ॆद बादल आसमान पर और पानी पर तैर रहे थे.

....और कब, आखिर कब, सिर्योझा की नज़र ही नहीं पड़ी, ‘दाल्न्याया’ रास्ते के पीछे इतने ऊँचे, इतने घने पौधे आ गए? कब रई की फ़सल में बालियाँ आईं, कब उनमें फूल आए, कब फूल मुरझा गये? अपनी ज़िन्दगी में मगन सिर्योझा ने ध्यान ही नहीं दिया, और अब वह भर गई है, पक रही है, जब रास्ते पर चलते हो, तो सिर के ऊपर शोर मचाते हुए डोल रही है. पंछियों ने अंडों में से पिल्ले बाहर निकाले, घास काटने की मशीन चरागाहों पर घूम रही थी – फूलों को रौंदते हुए, जिनके कारण उस किनारे पर इतना सुन्दर और रंगबिरंगा था. बच्चों की छुट्टियाँ हैं, गर्मी पूरे ज़ोर पर है, बर्फ़ और तारों के बारे में सोचना भूल गया सिर्योझा...

कोरोस्तेल्योव उसे अपने पास बुलाता है और घुटनों के बीच पकड़ता है.
 “ चलो, एक सवाल पर बहस करें,” वह कहता है. “तुम्हारा क्या ख़याल है, हमें अपने परिवार में और किसे लाना चाहिए – लड़के को या लड़की को?”
 “लड़के को!” सिर्योझा ने फ़ौरन जवाब दिया.
 “यहाँ, बात ऐसी है : बेशक, एक लड़के के मुक़ाबले में दो लड़के बेहतर ही हैं; मगर, दूसरी ओर से देखें तो, लड़का तो हमारे यहाँ है ही, तो, इस बार लड़की लाएँ, हाँ?”
 “ऊँ, जैसा तुम चाहो,” बगैर किसी उत्सुकता के सिर्योझा ने सहमति दिखाई. “लड़की भी चलेगी. मगर, जानते हो, लड़कों के साथ खेलना मुझे ज़्यादा अच्छा लगता है.”
 “तुम उसका ध्यान रखोगे और हिफ़ाज़त करोगे, बड़े भाई की तरह. इस बात का ध्यान रखोगे कि लड़के उसकी चोटियाँ न खींचे.”
 “लड़कियाँ भी तो खींचती हैं,” सिर्योझा टिप्पणी करता है. “और वो भी कैसे!” वह वर्णन करके बता सकता था कि कैसे ख़ुद उसको अभी हाल ही में लीदा ने बाल पकड़कर खींचा था; मगर उसे चुगली करना अच्छा नहीं लगता. “और खींचती भी ऐसे हैं कि लड़के कराहने लगते हैं.”
 “मगर हमारी वाली तो छो s s टी सी होगी,” कोरोस्तेल्योव कहता है. “वह नहीं खींचेगी.”   
“नहीं, मगर, फिर भी, लड़का ही लाएँगे,” सिर्योझा कुछ सोचने के बाद कहता है. “लड़का ज़्यादा अच्छा है.”
“तुम ऐसा सोचते हो?”
 “लड़के चिढ़ाते नहीं हैं. और वे तो बस, चिढ़ाना ही जानती हैं.”
 “हाँ?...हुँ. इस बारे में सोचना पड़ेगा. हम एक बार फिर इस पर सोच विचार करेंगे, ठीक है?”
 “ठीक है, करेंगे सोच विचार.”

मम्मा मुस्कुराते हुए सुन रही है, वह वहीं पर अपनी सिलाई लिए बैठी है. उसने अपने लिए एक चौड़ा – बहुत बहुत चौड़ा हाउस-कोट सिया – सिर्योझा को बहुत आश्चर्य हुआ, इतना चौड़ा किसलिए – मगर वह खूब मोटी भी हो गई थी. इस समय उसके हाथों में कोई छोटी सी चीज़ थी, वह इस छोटी सी चीज़ पर चारों ओर से लेस लगा रही थी.
 “ये तुम क्या सी रही हो?” सिर्योझा पूछता है.
 “छोटी सी टोपी,” मम्मा जवाब देती है. “लड़के के लिए या लड़की के लिए, जिसे भी तुम लोग लाना चाहोगे.”
 “उसका क्या ऐसा सिर होगा?” खिलौने जैसी चीज़ की ओर देखते हुए सिर्योझा पूछता है. (‘ओह, ये लो, और सुनो! अगर ऐसे सिर के बाल पकड़ कर ज़ोर से खींचे जाएँ, तो सिर ही उखड़ सकता है!’)
 “पहले ऐसा होता है,” मम्मा जवाब देती है, “फिर बड़ा होगा. तुम तो देख ही रहे हो कि विक्टर कैसे बड़ा हो रहा है. और तुम ख़ुद कैसे बड़े हो रहे हो. वह भी इसी तरह से बड़ा होगा.”
वह अपने हाथ पर टोपी रखकर उसकी ओर देखती है; उसके चेहरे पर समाधान है, शांति है. कोरोस्तेल्योव सावधानी से उसका माथा चूमता है, उस जगह पर जहाँ उसके नर्म, चमकीले बाल शुरू होते हैं...

वे इस बात को बड़ी गंभीरता से ले रहे थे – लड़का या लड़की: उन्होंने छोटी सी कॉट और रज़ाई ख़रीदी. मगर लड़का या लड़की नहाएगा तो सिर्योझा के ही टब में. वह टब अब सिर्योझा के लिए छोटा हो गया है, वह कई दिनों से उसमें बैठकर अपने पैर नहीं फैला सकता; मगर ऐसे इन्सान के लिए, जिसका सिर इतनी छोटी सी टोपी में समा जाए, ये टब बिल्कुल ठीक है.

बच्चे कहाँ से लाए जाते हैं ये सब को मालूम है: उन्हें अस्पताल में ख़रीदते हैं. अस्पताल बच्चों का व्यापार करता है, एक औरत ने तो एकदम दो ख़रीद लिए. न जाने क्यों उसने दोनों बिल्कुल एक जैसे ख़रीदे – कहते हैं कि वह उन्हें जन्म के निशान से पहचानती है: एक की गर्दन पर निशान है, और दूसरे की नहीं है. समझ में नहीं आता कि उसे एक जैसे बच्चों की क्या ज़रूरत पड़ गई. इससे तो अच्छा होता कि अलग अलग तरह के ख़रीदती.

मगर न जाने क्यों कोरोस्तेल्योव और मम्मा बेकार ही में इस काम में देर कर रहे हैं, जिसे इतनी गंभीरता से शुरू किया था: कॉट खड़ी है, मगर न तो लड़के का कहीं पता है, न ही लड़की का.
 “तुम किसी को ख़रीदती क्यों नहीं हो?” सिर्योझा मम्मा से पूछता है.
मम्मा हँसती है – ओय, कितनी मोटी हो गई है.
 “अभी इस समय उनके पास नहीं है. वादा किया है कि जल्दी ही आएँगे.”

ऐसा होता है : किसी चीज़ की ज़रूरत होती है, मगर उनके पास वह चीज़ होती ही नहीं है. क्या करें, इंतज़ार करना पड़ेगा; सिर्योझा को ऐसी कोई जल्दी नहीं है.

छोटे बच्चे धीरे धीरे बड़े होते हैं, मम्मा चाहे कुछ भी कहे. विक्टर को देखकर तो ऐसा ही लगता है. कितने दिनों से विक्टर इस दुनिया में रह रहा है, मगर अभी वह सिर्फ एक साल और छह महीने का ही है. कब वह बड़ा होकर बच्चों के साथ खेलेगा! और नया लड़का, या लड़की, सिर्योझा के साथ इतने दूर के भविष्य में खेलने के क़ाबिल होगा, जिसके बारे में, सच कहें तो, सोचना भी बेकार है. तब तक उसकी हिफ़ाज़त करनी पड़ेगी, उसे संभालना पड़ेगा. यह एक अच्छा काम है, सिर्योझा समझता है कि अच्छा काम है; मगर फिर भी दिल बहलाने वाला तो नहीं है, जैसा कि कोरोस्तेल्योव को लगता है. लीदा को कितनी मुश्किल होती है विक्टर को बड़ा करने में : उसको उठाओ, उसका दिल बहलाओ और डाँटो भी. कुछ ही दिन पहले माँ और पापा शादी में गए थे, मगर लीदा घर में बैठकर रो रही थी. अगर विक्टर न होता, तो वे उसे भी शादी में ले जाते. मगर उसके कारण ऐसे रहना पड़ता है, जैसे जेल में हो, उसने कहा था.

अच्छा – चलो, जाने दो : सिर्योझा तैयार है कोरोस्तेल्योव और मम्मा की मदद करने के लिए. उन्हें आराम से काम पर जाने दो, पाशा बुआ को खाना पकाने दो, सिर्योझा इस गुड़िया जैसे सिर वाले, असहाय जीव का ज़रूर ख़याल रखेगा, जो बिना देखभाल के ख़त्म ही हो जाएगा. वह उसे पॉरिज खिलाएगा, सुलाएगा. वह और लीदा बच्चे उठाए उठाए एक दूसरे के घर जाते आते रहेंगे: दोनों का मिलकर देखभाल करना आसान होगा – जब तक वे सोएँगे, हम लोग खेल भी सकते हैं.

एक दिन सुबह वह उठा – उसे बताया गया कि मम्मा बच्चा लाने अस्पताल गई है.

चाहे उसने अपने आप को कितना ही तैयार क्यों न किया था, फिर भी दिल धड़क रहा था : चाहे जो भी हो, यह एक बड़ी घटना है...
वह पल पल मम्मा के लौटने की राह देख रहा था; गेट के पीछे खड़ा रहा, इस बात का इंतज़ार करते हुए कि वह अभी नुक्कड़ पर लड़के या लड़की को लिए दिखेगी, और वह भागकर उनसे मिलने जाएगा...पाशा बुआ ने उसे पुकारा :
 “कोरोस्तेल्योव तुझे टेलिफोन पर बुला रहा है.”
वह घर के भीतर भागा, उसने काला चोंगा पकड़ा जो मेज़ पर पड़ा था.
 “मैं सुन रहा हूँ!” वह चिल्लाया. कोरोस्तेल्योव की हँसती हुई, उत्तेजित आवाज़ ने कहा:
 “सिर्योझ्का! तेरा अब एक भाई है! सुन रहे हो! भाई! नीली आँखों वाला! वज़न है चार किलो, बढ़िया है न, हाँ? तुम ख़ुश हो?”
 “हाँ!...हाँ...” घबरा कर और रुक रुक कर सिर्योझा चिल्लाया. चोंगा ख़ामोश हो गया.
पाशा बुआ ने एप्रन से आँखें पोंछते हुए कहा, “नीली आँखों वाला! – मतलब, पापा जैसा! तेरी बड़ी कृपा है, भगवान! गुड लक!!”
 “वे जल्दी आ जाएँगे?” सिर्योझा ने पूछा, और उसे यह जानकर दुख और अचरज हुआ कि जल्दी नहीं आएँगे, शायद सात दिन बाद, या उससे भी ज़्यादा – और क्यों, तो इसलिए कि बच्चे को मम्मा की आदत होनी चाहिए, अस्पताल में उसे मम्मा के पास जाना, उसके पास रहना सिखाएँगे.

कोरोस्तेल्योव हर रोज़ अस्पताल जाता था. मम्मा के पास उसे जाने नहीं देते थे, मगर वह उसे चिट्ठियाँ लिखती थी. हमारा लड़का बहुत ख़ूबसूरत है. और असाधारण रूप से होशियार है. आख़िर में उसने उसके लिए नाम भी सोच लिया – अलेक्सेई, और उसको पुकारा करेंगे ‘ल्योन्या’ के नाम से. उसे वहाँ बहुत उदास लगता है, उकताहट होती है, घर जाने के लिए वह तड़प रही है. और सबको अपनी बाँहों में लेती है और चूमती है, ख़ासकर सिर्योझा को.

...सात दिन, या उससे भी ज़्यादा गुज़र गए. कोरोस्तेल्योव ने घर से निकलते हुए सिर्योझा से कहा, “मेरी राह देखना, आज मम्मा को और ल्योन्या को लाने जाएँगे.”

वह ‘गाज़िक’ में तोस्या बुआ और गुलदस्ते के साथ लौटा. वे उसी अस्पताल में गए, जहाँ परदादी मर गई थी. गेट से पहली बिल्डिंग की ओर चले, और अचानक मम्मा ने उन्हें पुकारा:
 “मीत्या! सिर्योझा!”
वह खुली खिड़की से देख र्ही थी और हाथ हिला रही थी. सिर्योझा चिल्लाया, “मम्मा!” उसने एक बार फिर हाथ हिलाया और खिड़की से हट गई. कोरोस्तेल्योव ने कहा कि वह अभी बाहर आएगी. मगर वह जल्दी नहीं आई – वे रास्ते पर घूम फिर रहे थे और स्प्रिंग पर लटके, चरमराते दरवाज़े की ओर देख लेते, और एक छोटे से पारदर्शी, बेसाया पेड़ के नीचे पड़ी बेंच पर बैठ जाते. कोरोस्तेल्योव बेचैन होने लगा, उसने कहा कि उसके आने तक फूल मुरझा जाएँगे. तोस्या बुआ गाड़ी को गेट के बाहर छोड़ कर उनके पास आ गई और कोरोस्तेल्योव को समझाने लगी कि हमेशा इतनी ही देर लगती है.
आख़िरकार द्रवाज़ा चरमराया और मम्मा हाथों में नीला पैकेट लिए दिखाई दी. वे उसकी ओर लपके, उसने कहा, “संभल के, संभल के!”

कोरोस्तेल्योव ने उसे गुलदस्ता दिया और उसने वह पैकेट ले लिया, उसका लेस वाला कोना खोला और सिर्योझा को उसने छोटा सा चेहरा दिखाया: गहरा लाल और अकडू, और बन्द आँखों वाला : ल्योन्या, भाई...एक आँख ज़रा सी खुली, कोई हल्की-नीली चीज़ बाहर झाँकी – झिरी में, चेहरा टेढ़ा हो गया; कोरोस्तेल्योव ने धीमी आवाज़ में कहा: “आह, तू – तू...” और उसे चूम लिया.
 “ये क्या है, मीत्या!” मम्मा ने कड़ाई से कहा.
 “क्या, नहीं करना चाहिए?” कोरोस्तेल्योव ने पूछा.
 “उसे किसी भी तरह का इन्फेक्शन हो सकता है,” मम्मा ने कहा. “वहाँ उसके पास जाली वाला मास्क पहन कर आते हैं. प्लीज़, मीत्या.”
 “ठीक है, नहीं करूँगा, नहीं करूंगा!” कोरोस्तेल्योव ने कहा.

घर में ल्योन्या को मम्मा के पलंग पर रखा गया, उसके कपड़े हटाए गए, और तब सिर्योझा ने उसे पूरा देखा. मम्मा के दिमाग में ये कहाँ से आ गया कि वह सुन्दर है? उसका पेट फूला हुआ था, और उसके हाथ और पैर इतने पतले, इतने छोटे कि कोई सोच भी नहीं सकता कि ये इन्सान के हाथ-पैर हैं, और वे बेमतलब हिल रहे थे. गर्दन तो बिल्कुल थी ही नहीं. किसी भी बात से ये अंदाज़ नहीं लगाया जा सकता था कि वह होशियार है. उसने अपना पोपला, नंगे मसूड़ों वाला छोटा सा मुँह खोला और बड़ी अजीब, दयनीय आवाज़ में चीख़ने लगा. आवाज़ हालाँकि कमज़ोर थी, मगर वह ज़िद्दीपन से, बिना थके, एक सुर में चिल्लाए जा रहा था.
 “नन्हा-मुन्ना मेरा!” मम्मा ने उसे शांत किया. “तुझे भूख लगी है! तेरा खाने का टाइम हो गया! भूख लगी है मेरे नन्हे को! अभी ले, अभी, अभी, ले!”
वह ज़ोर से बोल रही थी, जल्दी जल्दी हलचल कर रही थी, और बिल्कुल भी मोटी नहीं थी – अस्पताल में वह दुबली हो गई थी. कोरोस्तेल्योव और पाशा बुआ उसकी मदद करने की कोशिश कर रहे थे, और फ़ौरन उसके सारे हुक्म मानने के लिए दौड़ रहे थे. ल्योन्या के लंगोट गीले थे. मम्मा ने उसे सूखे लंगोट में लपेटा, उसके साथ कुर्सी पर बैठी, अपने ड्रेस की बटन खोली, अपनी छाती बाहर निकाली और ल्योन्या के मुँह के पास लाई. ल्योन्या आख़िरी बार चीख़ा, उसने होठों से छाती पकड़ ली और लालच के साथ, घुटती हुई साँस से उसे चूसने लगा.
 ‘छिः, कैसा है!’ सिर्योझा ने सोचा.

कोरोस्तेल्योव उसके ख़यालों को भाँप गया. उसने हौले से कहा : “आज उसे नौंवा ही तो दिन है,समझ रहे हो? नौंवा दिन, बस इतना ही; उससे किस बात की उम्मीद कर सकते हो, ठीक है ना?”
 “हुँ, हुँ,” परेशानी से सिर्योझा सहमत हुआ.
 “आगे चलकर वह ज़रूर अच्छा आदमी बनेगा. देखोगे तुम.”

सिर्योझा सोचने लगा : ये कब होगा! और उसका ध्यान रखो भी तो कैसे, जब वह पतली पतली जैली जैसा है – मम्मा भी बड़ी सावधानी से उसे लेती है.

पेट भरने के बाद ल्योन्या मम्मा के पलंग पर सो गया. बड़े लोग डाईनिंग हॉल में उसके बारे में बातें कर रहे थे.
 “एक आया रखनी होगी,” पाशा बुआ ने कहा, “मैं संभाल नहीं पाऊँगी.”
 “किसी की ज़रूरत नहीं है,” मम्मा ने कहा. “जब तक मेरी छुट्टियाँ हैं, मैं उसके साथ रहूँगी, और उसके बाद शिशु-गृह में रखेंगे, वहाँ सचमुच की आया होती है, ट्रेंड, और सही तरह से देखभाल की जाती है.”
’हाँ, ये ठीक है, जाए शिशु-गृह में,’ सिर्योझा ने सोचा; उसे काफ़ी राहत महसूस हो रही थी. लीदा हमेशा इस बात का सपना देखा करती थी कि विक्टर को शिशु-गृह में भेजा गया है...सिर्योझा पलंग पर चढ़ गया और ल्योन्या के पास बैठ गया. जब तक वह चिल्लाता नहीं और मुँह टेढ़ा नहीं करता, वह उसे अच्छी तरह देखना चाहता था. पता चला कि ल्योन्या की बरौनियाँ तो हैं, मगर वे बहुत छोटी छोटी हैं. गहरे लाल चेहरे की त्वचा मुलायम, मखमली थी; सिर्योझा ने छूकर महसूस करने के इरादे से उसकी ओर उँगली बढ़ाई...
 “ये तुम क्या कर रहे हो!” मम्मा भीतर आते हुए चहकी.

अचानक हुए इस हमले से वह थरथराया और उसने अपना हाथ पीछे खींच लिया...

 “फ़ौरन नीचे उतरो! कहीं गंदी उँगलियों से उसे कोई छूता है!”

 “मेरी साफ़ हैं,” सिर्योझा ने भयभीत होकर पलंग से नीचे उतरते हुए कहा.

 “और वैसे भी, सिर्योझेन्का,” मम्मा ने कहा, “जब तक वह छोटा है, उससे दूर ही रहना अच्छा है. तुम अनजाने में उसे धक्का दे सकते हो...कुछ भी हो सकता है. और, प्लीज़, बच्चों को यहाँ मत लाना, वर्ना और किसी बीमारी का संसर्ग हो स्कता है...चलो, बेहतर है, हम ही उनके पास जाएँ!” प्यार से और आदेश देने के सुर में मम्मा ने अपनी बात पूरी की.

सिर्योझा उसकी बात मानकर बाहर निकल गया. वह सोच में पड़ गया था. ये सब वैसा नहीं है, जैसी उसने उम्मीद की थी...मम्मा ने खिड़की पर शॉल लटकाई, जिससे ल्योन्या को रोशनी तंग न करे, वह सिर्योझा के पीछे पीछे बाहर निकली और उसने दरवाज़ा उड़का लिया.

Seryozha - 09

अध्याय 9

कोरोस्तेल्योव की हुकूमत

उन्होंने एक गढ़ा खोदा, उसमें खंभा लगाया, लंबा तार खींचा. तार सिर्योझा के आंगन में मुड़ता है और घर की दीवार में चला जाता है. डाईनिंग रूम में छोटी सी मेज़ पर, सिग्नल पोस्ट की बगल में काला टेलिफ़ोन रखा है. ‘दाल्न्याया’ रास्ते पर वह पहला और अकेला टेलिफ़ोन है, और वह कोरोस्तेल्योव का है. कोरोस्तेल्योव की ख़ातिर ज़मीन खोदी गई, खंभा लगाया गया, तार खींचा गया. क्योंकि और लोग तो बगैर टेलिफ़ोन के काम चला सकते हैं, मगर कोरोस्तेल्योव का काम नहीं चल सकता.

चोंगा उठाते हो तो सुनाई देता है – एक औरत, जो दिखाई नहीं दे रही है, कहती है: ‘स्टेशन’. कोरोस्तेल्योव, कमांडर, हुकूमत भरी आवाज़ में आज्ञा देता है, “ ‘यास्नी बेरेग!’ या ‘पार्टी प्रदेश कमिटी’ या ‘सोवियत फ़ार्म का ट्रस्ट दीजिए!” बैठता है, लंबा सिर हिलाते हुए, और चोंगे में बात करता है. और इस समय किसी को भी, मम्मा को भी, उसका ध्यान वहाँ से हटाने की इजाज़त नहीं होती.

कभी कभी टेलिफ़ोन खनखनाती आवाज़ में बजने लगता है. सिर्योझा लपक कर चोंगा उठाता है और चिल्लाता है : “सुन रहा हूँ!”
चोंगे की आवाज़ कोरोस्तेल्योव को बुलाने को कहती है. कितने लोगों को कोरोस्तेल्योव की ज़रूरत पड़ती है! लुक्यानिच को और मम्मा को कभी कभार फ़ोन करते हैं. और सिर्योझा को और पाशा बुआ को तो कोई भी, कभी भी फ़ोन नहीं करता.

सुबह सुबह कोरोस्तेल्योव जल्दी ‘यास्नी बेरेग’ जाता है. दोपहर में कभी कभी तोस्या बुआ उसे खाना खाने के लिए गाड़ी में लाती है, मगर अक्सर नहीं ही लाती है, मम्मा ‘यास्नी बेरेग’ में फ़ोन करती है, मगर उससे कहते हैं कि कोरोस्तेल्योव फ़ार्म पर गया है और जल्दी नहीं लौटेगा.

 ‘यास्नी बेरेग’ भयानक रूप से बड़ा है. सिर्योझा ने तो सोचा तक नहीं था कि वह इतना बड़ा होगा, जब तक वह एक बार कोरोस्तेल्योव और तोस्या बुआ के साथ, कोरोस्तेल्योव के काम से, ‘गाज़िक’ कार में वहाँ नहीं गया. वे बस कार में जाते रहे, जाते रहे! पेड़ों की कतारों के बीच से खूब बड़े बड़े दृश्य ‘गाज़िक’ के सामने आते और दोनों किनारों पर खुलते जाते – शरद ऋतु के बड़े बड़े घास के मैदान; हल्के बैंगनी कोहरे को भेदकर ज़मीन के उस छोर तक जाने वाले घास के ऊँचे ऊँचे ढेर; अनाज काट लेने के बाद बचे पीले पीले खूंटों वाले लंबे चौड़े खेत; कहीं कहीं मक्के के हरे हरे पौधों की लाईनों से सजी काली मखमली धरती. रास्ते एक दूसरे से मिल रहे थे, एक दूसरे को काट रहे थे, भूरी रिबन्स की तरह; उन पर लॉरियाँ दौड़ रही थीं, ट्रैक्टर्स घास की चौकोर टोपियाँ पहनी गाड़ियों को खींच कर ले जा रहे थे. सिर्योझा पूछता जा रहा था:
 “और, अब ये क्या है?”
और उसे एक ही जवाब मिलता, “यास्नी बेरेग.”

लंबे चौड़े मैदानों में खो गए, एक दूसरे से दूर हैं तीन फ़ार्म्स: भारी भरकम इमारतों के तीन समूह: एक फ़ार्म में है साईलो (अनाज रखने की मीनार) ; दूसरे में हैं मोटर गाड़ियों के लिए शेड्स. कारखाने में ड्रिलिंग मशीन की श्यूss श्यूss और ब्लो लैम्प्स की झूss झूss की आवाज़. धातु-काम की भट्टी के गहरे काले अंधेरे में आग की चिनगारियाँ उड़ रही हैं, हथौड़ों की आवाज़ आ रही है...
और चारों ओर से लोग बाहर निकल निकल कर आ रहे हैं, कोरोस्तेल्योव को नमस्ते करते हैं, और वह हर चीज़ ध्यान से देखता है, सवाल पूछता है, हुकुम देता है, फिर ‘गाज़िक’ में बैठकर आगे जाता है. अब समझ में आया कि उसे क्यों हमेशा ‘यास्नी बेरेग’ में जाने की जल्दी पड़ी रहती है. अगर वह आकर नहीं बताएगा तो उन्हें कैसे मालूम पड़ेगा कि क्या करना है?

फ़ार्म्स पर बहुत सारे जानवर हैं : सुअर, भेड़, मुर्गियाँ, बत्तख़ – मगर सबसे ज़्यादा गाएँ हैं. जब तक गर्म मौसम था, गाएँ आज़ाद घूमती थीं, चरागाहों में. अब तक वहाँ शेड्स हैं जिनके नीचे वे बुरे मौसम में रातों को रहती थीं. अब गाएँ जानवरों वाले आँगन में हैं. एक लाईन में शांति से खड़ी रहती हैं, सींगों पर जंज़ीर डालकर उन्हें लकड़ी के एक डंडे से बांधा जाता है, और वे पूँछ हिलाते हुए एक लंबी-लंबी ट्रे से घास खाती रहती हैं. वे शराफ़त से व्यवहार नहीं करतीं: पूरे समय उनके पीछे पीछे गोबर इकट्ठा किया जाता है. सिर्योझा को यह देखकर बड़ी शरम आ रही थी कि गाएँ कितनी बेशर्मी से रहती हैं; कोरोस्तेल्योव का हाथ पकड़े-पकड़े वह जानवरों के आँगन के गीले पुलों से चल रहा था, बिना आँख ऊपर उठाए. कोरोस्तेल्योव उनकी बेशर्मी पर ध्यान नहीं दे रहा था, वह गायों की पीठों को थपथपाते हुए हुक्म दे रहा था.

एक औरत उससे कुछ बहस कर रही थी, उसने यह कहते हुए बहस बीच ही में काट दी:
 “ठीक है, ठीक है. करिए, करिए.”
और औरत चुप हो गई और जो उसने कहा था वह करने चली गई.
दूसरी औरत पर, जो मम्मा जैसी ही फुंदे वाली नीली कैप पहने थी, वह चिल्लाया:
 “इसका जवाब कौन देगा, क्या इन छोटी छोटी बातों की ज़िम्मेदारी मुझ पर है?”
वह उसके सामने परेशान सी खड़ी रही और बार बार कहती रही:
 “ये मेरी नज़र से कैसे छूट गया, मैंने इस बारे में सोचा क्यों नहीं, मुझे ख़ुद को ही समझ में नहीं आ रहा है!”

न जाने कहाँ से लुक्यानिच हाथों में एक कागज़ पकड़े हुए आया; उसने कोरोस्तेल्योव को एक फाउन्टेन पेन दिया और बोला:
 “साईन करो.” मगर कोरोस्तेल्योव का चिल्लाना अभी पूरा नहीं हुआ था, वह बोला, “ठीक है, बाद में.” लुक्यानिच ने कहा, “ ‘बाद में’ का क्या मतलब है, मुझे तुम्हारे साईन के बिना तो नहीं देंगे, और लोगों को तनख़्वाह मिलनी चाहिए.”

तो ऐसा है, अगर कोरोस्तेल्योव कागज़ पर साईन नहीं करेगा, तो उन्हें तनख़्वाह तक नहीं मिलेगी!
और जब सिर्योझा और कोरोस्तेल्योव गोबर के लोंदे के बीच से होकर, उनकी राह देख रही ‘गाज़िक’ की तरफ़ आ रहे थे, तो बढ़िया कपड़े पहने हुए एक नौजवान उनके सामने आया – उसने रबड़ के कम ऊँचे जूते पहने थे और चमड़े का चमकीली बटन वाला जैकेट पहना था.
 “दिमित्री कोर्नेएविच,” उसने कहा – “अब मैं क्या करूँ? वे मुझे रहने के लिए जगह ही नहीं दे रहे हैं, दिमित्री कोर्नेएविच!”
 “और तुमने सोचा,” कोरोस्तेल्योव ने रूखेपन से पूछा, “कि तुम्हारे लिए कॉटेज तैयार है?”
 “मेरी ज़िन्दगी का सत्यानाश हो रहा है,” नौजवान ने कहा, “ दिमित्री कोर्नेएविच, अपना आदेश वापस ले लीजिए!”
 “पहले सोचना चाहिए था,” कोरोस्तेल्योव ने और भी रुखाई से कहा. “कंधों पर सिर तो है ना? अपना सिर खपाया होता.”
  “ दिमित्री कोर्नेएविच, मैं आपसे विनती करता हूँ, एक इन्सान से दूसरे इन्सान की तरह विनती करता हूँ, आप समझ रहे हैं ना? मुझे अनुभव नहीं है, दिमित्री कोर्नेएविच, इन आपसी संबंधों की तह तक मैं गया नहीं हूँ. ”
 “मगर तुम इस बात की तह तक तो गए हो कि ‘साइड-बिज़नेस’ कैसे करते हैं?” कोरोस्तेल्योव ने स्याह चेहरे से पूछा, “दिया हुआ काम छोड़ देना और साइड-बिज़नेस करना – इसका अनुभव है?”
वह जाने लगा.
 “दिमित्री कोर्नेएविच,” नौजवान ने पीछा नहीं छोड़ा, “ दिमित्री कोर्नेएविच! प्लीज़, मेहेरबानी कीजिए! मुझे अपनी भूल सुधारने का मौका दीजिए! मैं अपनी गलती मानता हूँ! प्लीज़, काम पर रहने की इजाज़त दीजिए, दिमित्री कोर्नेएविच!”
 “मगर याद रखना!” कोरोस्तेल्योव ने पीछे मुड़कर गरजते हुए कहा, “एक बार और ऐसा हुआ तो!...”
 “मगर अब मुझे उनकी ज़रूरत क्या है, दिमित्री कोर्नेएविच! वे सिर्फ एक बिस्तर देने का वादा करते हैं, और वह भी कुछ समय बाद...मैंने थूक दिया उन पर, दिमित्री कोर्नेएविच!”
 “जंगली स्वार्थी,” कोरोस्तेल्योव ने कहा, “व्यक्तिवादी, सुअर की औलाद! आख़िरी बार – जा काम कर, शैतान ले जाए तुझे!”
 “फ़ौरन काम पर जाता हूँ!” फट् से नौजवान ने कहा और आगे बढ़ गया, रूमाल बांधी लड़की की ओर देखकर आँखें मिचकाते हुए, जो कुछ दूरी पर खड़ी थी.
 “तुम्हारे लिए आदेश वापस नहीं ले रहा हूँ, तान्या की ख़ातिर ले रहा हूँ! उसे धन्यवाद दो कि वह तुमसे प्यार करती है!” कोरोस्तेल्योव चिल्लाया और उसने भी जाते जाते लड़की की ओर देखकर आँखें मिचकाईं. और वह लड़की और नौजवान हाथों में हाथ लिए उसकी ओर देखते रहे, अपने सफ़ेद दाँत दिखाते हुए.

तो, ऐसा है कोरोस्तेल्योव : अगर वह चाहता तो नौजवान को और तान्या को बहुत तकलीफ़ हुई होती.
मगर वह ऐसा नहीं चाहता था, क्योंकि वह न केवल सर्वशक्तिमान है, बल्कि दयालु भी है. उसने ऐसा किया जिससे वे ख़ुश हैं और मुस्कुरा रहे हैं.

सिर्योझा को गर्व क्यों न हो कि उसके पास ऐसा कोरोस्तेल्योव है?

यह बात साफ़ है कि कोरोस्तेल्योव सबसे अच्छा और सबसे बुद्धिमान है, इसीलिए उसको सबके ऊपर रखा गया है.

गुरुवार, 30 अक्टूबर 2014

Seryozha - 08

अध्याय – 8

परदादी का दफ़न

परदादी बीमार हो गई, उसे अस्पताल ले गए. दो दिन तक सब कहते रहे कि जाकर उसे देखना चाहिए, और तीसरे दिन जब घर में सिर्फ सिर्योझा और पाशा बुआ थे, नास्त्या दादी आ गई. वह हमेशा से भी ज़्यादा तनी हुई और गंभीर लग रही थी, और उसके हाथ में अपना ज़िप वाला काला पर्स था. नमस्ते करने के बाद नास्त्या दादी बैठ गई और बोली:
 “मेरी माँ. गुज़र गई.”

पाशा बुआ ने सलीब का निशान बनाया और कहा:
 “ख़ुदा उन्हें जन्नत बख़्शे!”
नास्त्या दादी ने पर्स से एक आलूबुखारा निकाला और सिर्योझा को दिया.
 “उसके लिए ले गई थी, मगर वे बोले – दो घंटे पहले मर गई. खा, सिर्योझा, ये धुले हुए हैं. अच्छे आलूबुखारे हैं. माँ को अच्छे लगते थे : चाय में डालती थी, उबालती थी और खाया करती थी. ये सारे तू ही ले ले.” और वह आलूबुखारे पर्स से निकाल निकाल कर मेज़ पर रखने लगी.
 “ये किसलिए, अपने लिए रखिए,” पाशा बुआ ने कहा.
नास्त्या दादी रोने लगी.
 “नहीं चाहिए मुझे. माँ के लिए ख़रीदा करती थी.”
 “कितनी उम्र थी उनकी?” पाशा बुआ ने पूछा.
 “तेरासीवाँ चल रहा था. लोग इससे भी ज़्यादा साल जीते हैं. नब्बे साल तक, देखती तो हो, जीते हैं.”
 “थोड़ा दूध पी लीजिए,” पाशा बुआ ने कहा. “एकदम ठण्डा, तहख़ाने से लाई हूँ. खाना तो पड़ेगा ही, क्या कर सकते हैं.”
 “दीजिए,” नास्त्या दादी ने नाक सुड़कते हुए कहा, और दूध पीने लगी. पीते पीते कहने लगी, “बिल्कुल आँखों के सामने दिखाई दे रही है, जैसे मेरे सामने खड़ी हों. और कैसी होशियार थीं और कितनी किताबें पढ़ती थीं, अचरज होता है...मेरा घर अब ख़ाली हो गय. मैं किसी को किराए पर रख लूँगी.”
 “आह – आह – आह – आह!” पाशा बुआ ने गहरी साँस ली.

 सिर्योझा ने हाथों में आलू बुखारे भर लिए और वह आँगन में निकल गया, नर्म-गर्म धूप में बैठा और सोचने लगा.

अगर अब नास्त्या दादी का घर ख़ाली हो गया है, तो – इसका मतलब ये हुआ कि परदादी मर गई है: वे दोनों ही तो रहती थीं; मतलब, वह नास्त्या दादी की माँ थी. और सिर्योझा सोचने लगा कि अगली बार जब वह नास्त्या दादी के घर जाएगा, तो कोई उस पर नज़र नहीं रखेगा, न ही कोई उसे डाँटेगा.

उसने मौत देखी थी. चूहे को देखा था जिसे ज़ायका बिल्ले ने मार डाला था, और इससे पहले चूहा फ़र्श पर दौड़ रहा था, और ज़ायका उसके साथ खेल रहा था, और अचानक वह उछला और पीछे हट गया, और चूहे ने दौड़ना बन्द कर दिया, और ज़ायका ने उसे खा लिया, अपने भरे हुए थोबड़े को आराम से हिलाते हुए...सिर्योझा ने मरे हुए बिल्ली के बिलौटे को भी देखा था जो गन्दे फर के टुकड़े जैसा लग रहा था; मरी हुई तितलियों को देखा था – फटे हुए, पारदर्शी, बिना पराग के पंखों वाली; मरी हुई मछलियों को देखा था जो किनारे पर फेंकी गई थीं; मरी हुई मुर्गी को, जो किचन की बेंच पर पड़ी थी: उसकी गर्दन बत्तख की गर्दन जैसी लम्बी थी, और गर्दन में काला छेद था, और उस छेद से नीचे रखे बर्तन में बूंद बूंद करके खून गिर रहा था. न तो पाशा बुआ, न ही मम्मा मुर्गी को काट सकीं, उन्होंने यह काम लुक्यानिच को सौंप दिया. वह मुर्गी लेकर बाहर के गोदाम में छिप गया, मुर्गी चिल्ला रही थी, और सिर्योझा भाग गया जिससे उसकी चीख़ें न सुन सके; और फिर किचन से आते हुए उसने नफ़रत से और अनचाही उत्सुकता से कनखियों से देखा कि कैसे काले छेद से बर्तन में खून टपक रहा है. उसे सिखाया गया कि अब मुर्गी का अफ़सोस करने की कोई ज़रूरत नहीं है, पाशा बुआ अपने फूले फूले हाथों से उसके पंख उखाड़ती और सांत्वना देते हुए कहती, “अब वह कुछ भी महसूस नहीं कर सकती है.”

एक मरी हुई चिड़िया को सिर्योझा ने हाथ से छुआ था. चिड़िया इतनी ठंडी थी कि सिर्योझा ने डर के मारे हाथ झटक दिया. वह इतनी ठंडी थी जैसे बर्फ़ का टुकड़ा, बेचारी चिड़िया, जो दोनों पैर ऊपर किए लाइलैक की झाड़ी के नीचे पड़ी थी, जो धूप से गरम हो रही थी.
निश्चलता और ठंडापन – शायद इसी को मौत कहते हैं.
लीदा ने चिड़िया के बारे में कहा:
 “चलो, उसे दफ़नाते हैं!”
वह एक छोटा सा डिब्बा लाई, उसमें कपड़े का एक टुकड़ा बिछाया, दूसरे टुकड़े से उसने तकिया बनाया और उसके चारों ओर लेस सजा दी: बहुत कुछ आता है लीदा को, उसकी तारीफ़ करनी पड़ेगी. उसने सिर्योझा से एक छोटा सा गड्ढा खोदने को कहा. वे चिड़िया वाले डिब्बे को गड्ढे तक लाए, उसे ढक्कन से बन्द किया और उस पर मिट्टी छिड़क दी. लीदा ने अपने हाथों से उस छोटे से मिट्टी के ढेर को समतल किया और उसमें एक टहनी घुसा दी.
 “देखो, हमने उसे कैसे दफ़ना दिया!” उसने अपने आप ही अपनी तारीफ़ की. “उसने तो सोचा भी नहीं था!”

वास्का और झेन्का ने इस खेल में भाग लेने से इनकार कर दिया, वे दूर बैठे रहे और सिगरेट पीते हुए उदासी से देखते रहे; मगर उन्होंने ज़रा भी मज़ाक नहीं उड़ाया.

कभी कभी लोग भी मरते हैं. उन्हें लम्बे लम्बे बक्सों – ताबूत – में रखते हैं – और रास्तों से ले जाते हैं. सिर्योझा ने दूर से ये देखा था. मगर मरे हुए आदमी को उसने कभी नहीं देखा था.
...पाशा बुआ ने एक गहरी प्लेट में पके हुए सफ़ॆद और नर्म चावल रखे और प्लेट के किनारों पर थोड़ी थोड़ी जगह छोड़ कर लाल जैली रखी. बीच में, चावल के ऊपर, उसने फ्रूट जैली से कोई फूल, या शायद कोई सितारा बनाया.    
 “ये सितारा है?” सिर्योझा ने पूछा.
 “ये सलीब है,” पाशा बुआ ने जवाब दिया. “हम दोनों परदादी को दफ़नाने जाएँगे.”

उसने सिर्योझा का मुँह धोया, हाथ-पैर धोए, उसे मोज़े पहनाए, जूते पहनाए, नाविकों का यूनिफॉर्म पहनाया और नाविकों की कैप भी पहनाई – फ़ीतों वाली – बहुत सारी चीज़ें! उसने ख़ुद भी अच्छे कपड़े पहने – काला लेस वाला स्कार्फ़. चावल वाली प्लेट को सफ़ेद रूमाल में बांधा. इसके अलावा उसने एक गुलदस्ता भी लिया, और सिर्योझा के हाथों में भी फूल पकड़ाए, मोटी मोटी टहनियों पर दो डेलिया के फूल.

वास्का की माँ डोलची लेकर पानी के लिए जा रही थी. सिर्योझा ने उससे कहा, “नमस्ते! हम परदादी को दफ़नाने जा रहे हैं!”

लीदा अपने फ़ाटक के पास नन्हें विक्टर को हाथों में उठाए खड़ी थी. सिर्योझा ने उससे भी चिल्लाकर कहा, “मैं परदादी को दफ़नाने जा रहा हूँ!” - और उसने जलन भरी नज़रों से उसे बिदा किया. उसे मालूम था, कि उसका दिल भी जाने को चाह रहा है; मगर वह तय नहीं कर पा रही है, क्योंकि वह इतने ठाठ से जा रहा है, और वो गंदे कपड़ों में और बिना जूतों के है. उसे उस पर दया आई और उसने मुड़ कर उसे पुकारा, “हमारे साथ चलोगी! कोई बात नहीं है!”

मगर वह बड़ी स्वाभिमानी है, वह न तो आई और न ही उसने कुछ कहा, सिर्फ पीछे से उसे तब तक देखती रही जब तक वह नुक्कड़ से मुड़ न गया.

एक सड़क पार की, दूसरी भी पार की. बहुत गर्मी थी. सिर्योझा दो भारी फूल पकड़ने के कारण थक गया और पाशा बुआ से बोला,
”तुम ही ले चलो इन्हें!”
उसने ले लिए. और अब वह लड़खड़ाने लगा: चलते चलते सीधी सपाट जगह पर भी लड़खड़ाता है.
 “तू ये लड़खड़ा क्यों रहा है?” पाशा बुआ ने पूछा.
 “क्योंकि मुझे गर्मी लग रही है,” उसने जवाब दिया. “ये सब कपड़े उतार लो, मैं बस पैंट पर ही चलूंगा.”
 “बकवास मत कर,” पाशा बुआ ने कहा. “वहाँ द्फ़न के लिए तुझे सिर्फ पैंट में कौन जाने देगा. बस, अभी पहुँच जाते हैं बस स्टॉप तक और फिर बस में बैठेंगे.”

सिर्योझा ख़ुश हो गया और बहादुरी से उस अंतहीन रास्ते पर चलने लगा, अनगिनत फैंसिग्स के पास से, जिनमें से पेड़ों की टहनियाँ उनके सिरों पर लटक रही थीं.
सामने से धूल उड़ाती गाएँ आ रही थीं. पाशा बुआ ने कहा, “मेरा हाथ पकड़.”
 “मुझे प्यास लगी है,” सिर्योझा ने कहा.
 “कुछ भी मत सोच,” पाशा बुआ ने कहा. “तुझे ज़रा भी प्यास नहीं लगी है.”

यहाँ उसने गलती कर दी थी: उसे सचमुच में प्यास लगी थी. मगर जब उसने ऐसा कहा तो उसकी प्यास थोड़ी कम हो गई.
गाएँ गुज़र गईं, अपने गंभीर सिर धीरे धीरे हिलाते हुए. हरेक का थन दूध से लबालब भरा था.

चौक पर सिर्योझा और पाशा बुआ बस में बैठे, बच्चों वाली जगह पर. सिर्योझा कभी कभार ही बस में जाया करता था, यह मनोरंजन उसे अच्छा लगता था. अपनी सीट पर घुटनों के बल खड़े होकर वह खिड़की से बाहर देख रहा था और अपने पड़ोसी पर भी नज़र डाल रहा था. पड़ोसी एक मोटा बच्चा था, सिर्योझा से छोटा, वह बाँस की सींक पर लगे लॉली पॉप के मुर्गे को चूस रहा था. पड़ोसी के गाल लॉली पॉप के कारण चिपचिपे हो गए थे. वह भी सिर्योझा की ओर देख रहा था, उसकी नज़रें कह रही थीं, “और तेरे पास तो लॉली पॉप का मुर्गा ही नहीं है, हा, हा!!” कंडक्टरनी आई.

“क्या बच्चे का टिकट लेना पड़ेगा?” पाशा बुआ ने पूछा.
 “अपनी नाप दो, बच्चे,” कंडक्टरनी बोली.

वहाँ एक काला निशान बना हुआ था, जिससे बच्चों की नाप ली जाती है: जो उस निशान तक पहुँचता है उसकी टिकट लेनी पड़ती है. सिर्योझा निशान के नीचे खड़ा हुआ और उसने अपनी एड़ियाँ कुछ ऊँची कर लीं. कंडक्टरनी बोली, “टिकट लीजिए.”

सिर्योझा ने विजयी भाव से पड़ोसी बच्चे की ओर देखा, ‘और मेरे लिए तो टिकट लेना पड़ता है,’ उसने ख़यालों में उस बच्चे से कहा, ‘मगर तेरे लिए तो नहीं लेते, हा हा हा!!’

मगर अंतिम विजय तो बच्चे की ही हुई, क्योंकि सिर्योझा और पाशा बुआ के उतरने के बाद भी वह बस में सिर्योझा से आगे जा रहा था.  

वे सफ़ेद पत्थरों के गेट के सामने खड़े थे. गेट के पीछे लम्बे सफ़ेद घर थे, जिनके चारों ओर छोटे छोटे पेड़ लगाए गए थे, पेडों के तने भी चूने से सफ़ेद कर दिए गए थे. नीले नीले गाऊन पहने लोग या तो घूम रहे थे या बेंचों पर बैठे थे.
 “ये हम कहाँ हैं?” सिर्योझा ने पूछा.
 “अस्पताल में,” पाशा बुआ ने जवाब दिया.
बिल्कुल आख़िरी घर के सामने आए, फिर कोने से मुड़ गए और सिर्योझा ने कोरोस्तेल्योव को, मम्मा को, लुक्यानिच को और नास्त्या दादी को देखा. सब एक खुले हुए चौड़े दरवाज़े के पास खड़े थे. और तीन अनजान बूढ़ी औरतें सिर पर रूमाल बांधे खड़ी थीं.
 “हम बस में आए!” सिर्योझा ने कहा.
किसी ने भी जवाब नहीं दिया, मगर पाशा बुआ ने धीरे से “शू s s s” किया, और वह समझ गया कि न जाने क्यों, बात करना मना है. वे ख़ुद बात कर रहे थे, मगर बहुत धीमी आवाज़ में. मम्मा ने पाशा बुआ से कहा, “आप इसे क्यों ले आईं, समझ में नहीं आता!”

कोरोस्तेल्योव नीचे गिरे हाथ में कैप पकड़े खड़ा था, उसका चेहरा बहुत भला और सोच में डूबा हुआ था. सिर्योझा ने अन्दर झाँका – वहाँ सीढ़ियाँ थीं, नीचे तहख़ाने में जाने के लिए, तहख़ाने के धुंधलके से नम ठंडक महसूस हो रही थी...सब धीरे धीरे आगे बढ़े और सीढ़ियों से नीचे उतरने लगे, और सिर्योझा उनके पीछे था.

दिन की रोशनी के बाद तहख़ाने में पहले तो अंधेरा ही दिखाई दिया. फिर सिर्योझा को दीवार से लगी हुई एक चौड़ी बेंच दिखाई दी, सफ़ेद छत और चिप्पी उड़ा हुआ सिमेंट का फ़र्श था, और बीच में कुछ ऊँचाई पर जालीदार सूती झालर लगा हुआ ताबूत. बहुत ठंडक थी, मिट्टी की और किसी और चीज़ की गंध आ रही थी. नास्त्या दादी लम्बे लम्बे कदम रखते हुए ताबूत के पास पहुँची और उस पर थोड़ा सा झुकी.
 “ये क्या है!” हौले से पाशा बुआ ने कहा. “हाथ कैसे रखे हैं! हे भगवान! ...लम्बे, खिंचे हुए!”
  “वे भगवान में विश्वास नहीं करती थीं,” नास्त्या दादी ने सीधे होते हुए कहा.
 “इससे क्या हुआ,” पाशा बुआ ने कहा, “वे कोई सैनिक थोड़ी हैं कि इस तरह से भगवान के सामने जाएँ.” और वह बूढ़ी औरतों की ओर मुड़ी, “आपने कैसे ध्यान नहीं दिया!”
बूढ़ी औरतें आहें भरने लगीं...सिर्योझा को नीचे से कुछ भी नज़र नहीं आ रहा था. वह बेंच पर चढ़ गया और उसने गर्दन बाहर निकाल कर ऊपर से ताबूत के अन्दर देखा...

वह सोच रहा था कि ताबूत में परदादी है. मगर वहाँ तो समझ में न आने वाला कुछ पड़ा था. ‘वो’ परदादी की याद दिला रहा था: वैसा ही पिचका हुआ मुँह और ऊपर को उठी हड़ीली ठोढ़ी; मगर ‘वो’ परदादी नहीं था. ‘वो’ न जाने क्या था. आदमी की आँखें ऐसी बन्द नहीं होतीं. जब आदमी सोता है, उसकी आँखें अलग तरह से बन्द होती हैं...
’वो’ लम्बा लम्बा था. मगर परदादी तो छोटी सी थी. ‘वो’ घनी ठण्डक से, अंधेरे से और भयानक ख़ामोशी से पूरी तरह घिरा हुआ था, जिसमें ताबूत के पास खड़े लोग भयभीत होकर फुसफुसाकर बातें कर रहे थे. सिर्योझा को भयानक डर लगा. अगर ‘वो’ अचानक ज़िन्दा हो जाए तो और भी डरावनी बात होगी. अगर ‘वो’, मान लो, ‘ख र्र र्र र्र ...’ करने लगे तो...इस ख़याल से सिर्योझा चीख़ पड़ा.

वह चीख़ा, और, जैसे यह चीख़ सुन कर, ऊपर से, रोशनी से, नज़दीक ही प्रसन्नता भरी एक तेज़ जानदार आवाज़ सुनाई दी, गाड़ी के साइरन की आवाज़ थी वो...मम्मा सिर्योझा को पकड़कर तहख़ाने से ऊपर ले आई. दरवाज़े के पास लॉरी खड़ी थी, एक ओर से नीचे को झुकी हुई. वहीं कुछ अंकल लोग घूम रहे थे और सिगरेट पी रहे थे. लॉरी के कैबिन में ड्राईवर तोस्या बुआ बैठी थी, वो ही, जो तब कोरोस्तेल्योव का सामान लाई थी; वह ‘यास्नी बेरेग’ में काम करती है और कभी कभी कोरोस्तेल्योव को लेने के लिए आती है. मम्मा ने सिर्योझा को उसके पास बिठाया और बोली : “यहीं बैठे रहो!” – और उसने फ़ौरन कैबिन बन्द कर दिया. तोस्या बुआ ने पूछा, “परदादी को बिदा करने आए हो? तुम क्या उससे प्यार करते थे?”
 “नहीं,” सिर्योझा ने साफ़ साफ़ जवाब दिया. “प्यार नहीं करता था.”
 “तो फिर तुम क्यों आए?” तोस्या बुआ ने कहा, “अगर प्यार नहीं करते थे, तो यह सब देखना नहीं चाहिए.”

रोशनी और आवाज़ों के कारण डर भाग गया था, मगर सिर्योझा एकदम से उस अनुभव से अपने आप को दूर न कर सका, वह कसमसा रहा था, इधर उधर देख रहा था, सोच रहा था...और उसने पूछा, “भगवान  के सामने जाने का क्या मतलब होता है?”

तोस्या बुआ मुस्कुराई, “ये, बस, ऐसा ही कहते हैं.”
 “क्यों कहते हैं?”
 “बूढ़े लोग कहते हैं. तुम उनकी बात मत सुनो. ये सब बेवकूफ़ियाँ हैं.”
कुछ देर चुपचाप बैठे रहे. तोस्या बुआ ने अपनी हरी आँखें सिकोड़ते हुए रहस्यमय अंदाज़ में कहा, “सब वहीं जाएँगे.”
 ‘कहाँ – वहाँ?’ सिर्योझा सोचने लगा. मगर इस बात को समझने का उसका मन नहीं था; उसने पूछा नहीं. यह देखकर कि तहख़ाने से ताबूत बाहर ला रहे हैं, उसने मुँह फेर लिया. इस बात से कुछ हल्का महसूस हो रहा था कि ताबूत पर ढक्कन लगा था. मगर यह बात बड़ी बुरी लगी कि उसे लॉरी पर रखा गया.

कब्रस्तान में ताबूत को उतारा गया और उसे ले गए. सिर्योझा और तोस्या बुआ कैबिन से बाहर नहीं निकले, वे दरवाज़ा बन्द किए भीतर ही बैठे रहे. चारों ओर सलीब और लाल सितारों वाली लकड़ी की छोटी छोटी मीनारें थीं. पास में ही सूखने के कारण दरारें पड़ी छोटी सी पहाड़ी पर लाल चींटियाँ रेंग रही थीं. दूसरी पहाड़ियों पर ऊँची ऊँची घास लगी थी...’कहीं वह कब्र के बारे में तो नहीं कह रही थी?’ सिर्योझा ने सोचा, ‘कि सब वहाँ जाएंगे?’ – वे, जो चले गए थे, बगैर ताबूत के वापस लौटे. लॉरी चल पड़ी.
 “उस पर मिट्टी डाल दी?” सिर्योझा ने पूछा.
 “डाल दी, बच्चे, डाल दी,” तोस्या बुआ ने कहा.

जब घर वापस पहुँचे, तो पता चला कि पाशा बुआ वहीं, कब्रस्तान में रुक गई है बूढ़ी औरतों के साथ.

 “पाशेन्का को यह देखना ही होगा कि उसका ‘राईस-पुडिंग’ खा लिया गया है – बड़ी मेहनत से बेचारी ने बनाया था...”

नास्त्या दादी ने रूमाल खोलकर अपने बाल ठीक करते हुए कहा, “उनसे क्या झगड़ा करना है? यदि उन्हें लोभान जलाना ही है तो जलाने दो.”

वे फिर से बातें करने लगे – ज़ोर से, और वे मुस्कुरा भी रहे थे.

 “हमारी पाशा बुआ हज़ारों बातों में विश्वास करती हैं,” मम्मा ने कहा.

वे खाने के लिए बैठे. सिर्योझा से यह न हो सका. उसे खाने को देखकर नफ़रत हो रही थी. ख़ामोश बैठा वह बड़े लोगों के चेहरों को ग़ौर से देख रहा था. वह याद न करने की कोशिश कर रहा था, मगर ‘वो’ याद आए जा रहा था – लम्बा, ठंडक और मिट्टी की गंध में लिपटा डरावना...

 “उसने ऐसा क्यों कहा,” उसने कहा, “कि सब वहीं जाएँगे?”

बड़े लोग चुप हो गए और उसकी ओर मुड़े.

 “तुमसे किसने कहा?” कोरोस्तेल्योव ने पूछा.

 “तोस्या बुआ ने.”

 “तुम तोस्या बुआ की बात मत सुनो,” कोरोस्तेल्योव ने कहा, “तुम्हें तो शौक ही है सबकी बातें सुनने का.”

 “हम सब, क्या, मर जाएँगे?”

वे सब इतने गड़बड़ा गए, जैसे उसने कोई भद्दी बात पूछ ली हो. मगर वह उनकी ओर देख रहा था और जवाब का इंतज़ार कर रहा था.

कोरोस्तेल्योव ने जवाब दिया, “नहीं. हम नहीं मरेंगे. तोस्या बुआ जो चाहे कहे, मगर हम नहीं मरेंगे, और ख़ास कर तुम; मैं तुमसे वादा करता हूँ.”

 “कभी भी नहीं मरूँगा?” सिर्योझा ने पूछा.

 “कभी भी नहीं!” दृढ़ता से और विजयी मुद्रा से कोरोस्तेल्योव ने वादा किया.

और सिर्योझा को एकदम हल्का और ख़ुशनुमा महसूस होने लगा. ख़ुशी से वह लाल पड़ गया – गहरा लाल – और हँसने लगा. उसे अचानक बड़ी प्यास लगी : उसे तो कब से प्यास लगी थी, मगर वह भूल गया था. और उसने ख़ूब सारा पानी पिया, पीता रहा और उसका आनन्द उठाते हुए वह कराहता भी रहा. उसे इस बात में ज़रा सा भी शक नहीं था कि कोरोस्तेल्योव ने सच कहा है: ठीक ही तो है, अगर उसे मालूम होता कि वह मरने वाला है, तो वह जी कैसे सकता था? और क्या उसकी बात पर अविश्वास दिखाया जा सकता था, जिसने कहा था : “तुम नहीं मरोगे!”